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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

आत्मा


¤ हे भारत। सब के शरीर में सदा विराजमान यह आत्मा अबध्य है, इसलिए किसी प्राणी के लिए तुझे शोक करना योग्य नहीं है।

¤ उसको नाशरहित जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।

¤ जो इस आत्मा को मारनेवाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही सही नहीं समझते। यह आत्मा न तो मारता है एवं न मारा जाता है।

¤ यह (आत्मा) न तो किसी काल में जन्म लेता है, न मरता है, न ही यह एक बार होकर फिर अस्तित्वहीन होनेवाला है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है तथा शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।

¤ हे पार्थ  जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह कैसे किसको मरवा सकता है और कैसे किसे मार सकता है? जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरों में प्रवेश करता है।

¤ यह आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य है। यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।

¤ इस आत्मा को अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकारी कहा जाता है। इसलिए इस आत्मा को ऐसा जानकर तुझे शोक करना उचित नहीं है।

¤ हे भारत। सब के शरीर में सदा विराजमान यह आत्मा अवध्य है, इसलिए किसी प्राणी के लिए तुझे शोक करना योग्य नहीं है।

¤ पुरुष इस देह में स्थित होते हुए भी पर (त्रिगुणमयी माया से सर्वथा अतीत) है और इसे उपद्रष्टा, अनुमति देनेवाला, भर्ता, भोक्ता, महेश्वर और परमात्मा कहा गया है।

¤ कितने ही मनुष्य ध्यान के सहारे आत्मा के द्वारा आत्मा में परमात्मा को देखते हैं, कुछ ज्ञान के सहारे कुछ योग के सहारे और कुछ कर्मयोग के सहारे देखते हैं।

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