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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

त्रिधा-विभाजन

अन्न

¤ भोजन भी सब को तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन प्रकार के होते हैं। तू इनके भेदों को सुन।

¤ आयु, सत्त्व, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ानेवाले, रसयुक्त, स्निग्ध, पोषक तथा स्वभाव से ही मन के अनुकूल आहार सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।

¤ कटु, खट्टा, लवणयुक्त, अत्यन्त गरम, तीक्ष्ण, रूखा, दाहकारक आहार रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होता है तथा वह दुःख, चिन्ता और रोगों को उत्पन्न करता है।

¤ और जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्ध- युक्त, बासी, उच्छिष्ट और अपवित्र है, वह तमोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होता है।

यज्ञ

¤ जो यज्ञ शास्त्र सम्मत है, जिसका सम्पादन फल की आकांक्षा न रखनेवाले पुरुषों के द्वारा मन का समाधान करके कर्तव्य के भाव से किया जाता है, वह यज्ञ सात्विक होता है।

¤ परन्तु हे भरतश्रेष्ठ, तू उस यज्ञ को राजसिक जान, जो फल के उद्देश्य से तथा प्रदर्शन की दृष्टि से किया जाता है।

¤ शास्त्रविधि से हीन, अन्नदान से रहित, बिना मन्त्र के, बिना दक्षिणा के और बिना श्रद्धा के किये गये यज्ञ को तामसिक यज्ञ कहते हैं।

तप

¤ देवता, द्विज, गुरु और ज्ञानीजनों का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा - यह शरीर सम्बन्धी तप कहा जाता है।

¤ जो अनुद्वेगकारी, प्रिय, हितकारी और सत्य भाषण है, तथा जो वेदपाठ का अभ्यास है - यह सब वाणी सम्बन्धी तप कहा गया है।

¤ मन की प्रसन्नता, सौम्यता, मौन, आत्मनिग्रह और अन्तःकरण की पवित्रता - यह मन-सम्बन्धी तप कहा गया है।

¤ फल को न चाहनेवाले निष्काम योगी पुरुषों के द्वारा परम श्रद्धा से किये गये इस त्रिविध तप को सात्विक कहा जाता है।

¤ और जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए अथवा केवल दिखावे के लिए किया जाता है, ऐसा अस्थिर और क्षणिक फलवाला तप राजसिक कहलाता है।

¤ जो तप मूढ़तापूर्वक आत्मपीड़न या दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है, उसे तामसिक कहा गया है।

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