ई-पुस्तकें >> भगवान महावीर की वाणी भगवान महावीर की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान महावीर के वचन
भगवान महावीर
चौबीसवें तथा अन्तिम जैन तीर्थंकर वर्धमान महावीर का जन्म आज से लगभग 2533 वर्ष पूर्व ईसा-पूर्व सन् 539 में तत्कालीन वैशाली जनपद के कुण्डपुर ग्राम में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ एक लिच्छिवी राजा थे, तथा माता का नाम त्रिशाला था। जन्म के पूर्व माता ने चौदह अति शुभ स्वप्न देखे थे।
बाल्यकाल से ही वर्धमान अत्यन्त तेजस्वी थे। एक बार एक मुनि की तत्त्वजिज्ञासा का समाधान वर्धमान के दर्शन मात्र से हो जाने के कारण इन्हें सन्मति भी कहा जाने लगा। एक अन्य अवसर पर क्रीड़ारत बालकों पर एक विषधर सर्प ने आक्रमण किया। अन्य बालक भयभीत हो भाग गये, लेकिन बालक वर्धमान ने उसे वश में कर लिया। इसी तरह उन्होंने एक बार एक मदोन्मत्त हाथी को भी काबू में किया था।
श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार महावीर का विवाह हुआ था तथा उनकी एक कन्या थी। लेकिन दिगम्बर-मान्यता के अनुसार महावीर का विवाह नहीं हुआ था। वे अन्तर्मुखी प्रकृति के थे तथा सदा आत्मचिन्तन में निमग्न रहा करते थे। वे अल्पवय में ही गृहत्याग करना चाहते थे, लेकिन मातापिता के अनुरोध पर उनके जीवित रहने तक उन्होंने ऐसा नहीं किया। उसके बाद तीस वर्ष की उम्र में अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन की अनुमति से वे गृहत्याग कर परिव्राजक संन्यासी बन गये।
महावीर ने बारह वर्ष तक कठोर तपोमय साधना की। प्रगाढ़ आत्म-तन्मयता के कारण उन्हें अपनी देह, वस्त्र, आहार आदि की सुध नहीं रहती थी। ऐसी स्थिति में उनका एकमात्र वस्त्र न जाने कब शरीर से खिसक कर गिर गया। इन बारह वर्षों में वे आधे से अधिक काल निराहार रहे तथा प्राकृतिक तथा अज्ञ मानवों द्वारा दिये गये अनेक कष्टों को उन्होंने निर्विकार भाव से सहन किया। वे अनेक अभावनीय प्रतिज्ञाओं एवं मानसिक संकल्पों के साथ भिक्षा के लिये जाते लेकिन उनकी संकल्पशक्ति एवं सत्यप्रतिष्ठा के कारण अमानवीय परिस्थितियाँ यथार्थ हो उठतीं। अपनी बारह वर्षीय तपस्या के अन्त में उन्होंने मुण्डित-मस्तका, श्रृंखलाबद्ध राजकन्या के हाथों भोजन ग्रहण करने का मानसिक संकल्प किया। यह संकल्प राजा चेटक की कन्या चन्दना के द्वारा प्रदत्त भिक्षान्न से पूर्ण हुआ जो विचित्र परिस्थितियों में मस्तक-मुण्डित एवं श्रृंखलाबद्ध थी। चन्दना आगे चलकर महावीर के संन्यासिनी संघ की प्रथम साध्वी हुई।
पूर्ण ज्ञान अथवा केवल ज्ञान प्राप्त करने के बाद महावीर ने धर्मोपदेश प्रारम्भ किया। वेद-वेदांग में पारंगत गुण-शील-सम्पन्न इन्द्रमूर्ति गौतम नामक ब्राह्मण उनसे शास्त्रार्थ करने आया। लेकिन उनके शान्त, सौम्य ज्ञानोद्दीप्त मुखमण्डल के दर्शन मात्र से वह उनका शिष्य बन गया। गौतम के माध्यम से अपने ग्यारह गणधरों एवं असंख्य अनुयायियों को दिये गये भगवान महावीर के उपदेशों से जैनधर्म के द्वादशांग रूप शास्त्रों की रचना हुई है। भगवान महावीर ने अपने उपदेश तत्कालीन लोकभाषा अर्धमागधी में दिये थे। उनकी उपदेश सभा समवसरण कहलाती थी तथा उसमें पशु-पक्षी से लेकर देवताओं तक सभी के लिये स्थान रहता था।
महावीर ने साधु, साध्वी, पुरुष गृहस्थ-भक्त (श्रावक) तथा महिला गृहस्थ-भक्त (श्राविका) के एक चतुर्विध धर्मसंघ की स्थापना की जो आज भी विद्यमान है। 72 वर्ष की आयु में कार्तिक-कृष्णा अमावस्या अर्थात दीपावली के दिन नालन्दा के निकट पावापुरी ग्राम में उन्होंने देहत्याग किया।
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