उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘वे कुछ काल तक आँखें मूँदे बैठे रहे, उसके बाद उसी अवस्था में वे कहने लगे, ‘संजय! भारत-भूमि पर एक विचित्र नाटक खेला जाने वाला है। मेरी इच्छा है तुम इसमें निष्पक्ष होकर भाग लो। नाटक के सकल-सूत्रों की टोह लेकर ज्ञान प्राप्त करो। चन्द्रवंशियों में कृष्ण द्वैयारन, जो आजकल पराशरजी के संरक्षण में विद्याध्ययन कर रहा है, भविष्य में प्रकाण्ड विद्वान् होने वाला है। तुम उससे मिलना। वह तुम्हारे ज्ञान का बहुत मान करेगा।’’
‘‘संजय! हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं, जिससे तुमको वह सब-कुछ प्राप्त हो सके, जो तुम्हारी विद्वत्ता और शिक्षा के योग्य है। अब तुमको संसार में अवतीर्ण होना चाहिए और अपने बुद्धिबल से अपना स्थान बनाना चाहिए।’’
‘‘मेरी सम्मति में तुमको अपना काम अमरावती के सुरराज इन्द्र से मिलकर आरम्भ करना चाहिए। मैं देख रहा हूँ कि इस समय संसार में तुम्हारी विद्या को मान देने की स्थिति में केवल इन्द्र ही हैं। सो तुम उनके पास चले जाओ। मेरा नाम लेना। मेरा उनसे परिचय है, इससे तुमको लाभ पहुँचेगा।’’
‘‘तदनुसार मैं अमरावती के लिए चल पड़ा। पिताजी की दूरदर्शिता पर मुझे विश्वास था। मुझको पूर्ण भरोसा था कि सुरराज इन्द्र मुझको किसी-न-किसी कार्य पर नियुक्त कर देंगे।’’
‘‘मैं जब इन्द्र-भवन के द्वार पर पहुँचा, तो वहाँ सैकड़ों इन्द्र से मिलने आये हुओं की भीड़ देखकर मैं निरुत्साहित हो गया। मुझको द्वारपाल के समीप पहुँचने तथा अपना नाम और परिचय देने में आधा दिन लग गया। पहले तो मुझे उसी भीड़ में सबसे पीछे रहकर प्रतीक्षा करने के लिए कह दिया गया। मैंने अनुभव किया कि उन सैकड़ों भेंट के लिए आये हुए प्रार्थियों से भेंट के पश्चात् मुझे भेंट मिली तो मुझको एक मास के लगभग वहीं द्वार पर बैठा रहना पड़ेगा। इस कारण मैं अमरावती के किसी पंथागार में ठहरने की सोचने लगा भीड़ में ही मैंने एक व्यक्ति से पूछा, ‘यहाँ निवास के लिए स्थान कहाँ मिलेगा?’’
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