उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
इस सब परिवर्तित व्यवहार पर आश्चर्य करता हुआ जब मैं निवासस्थान पर पहुँचा और मैंने सोमभद्रजी से कहा तो वे खिलखिलाकर हँस पड़े। उन्होंने बताया कि सुरराज से आयुक्तक के पत्र का उत्तर आया है। उसमें लिखा है कि गवल्यण का पुत्र संजय उनका मित्र है उसको कश्मीर में, जब तक वह रहना चाहे, प्रत्येक प्रकार की सुविधा प्रदान की जाये। साथ ही पाँच सौ स्वर्ण मासिक उसको सुरराज की मित्रता के उपलक्ष्य में मिला करें।’’
‘‘परन्तु मैं राजप्रसाद में जाकर रहना नहीं चाहता।’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ, यदि आयुक्तक महोदय मुझ पर कृपा करने के लिए उत्सुक हैं, तो मुझको एक पृथक् निवास-स्थान, नगर से दूर नदी-तट पर दिलवा दें, जिसका भाड़ा उन पाँच सौ स्वर्ण में से दे दिया जाये।’’
यह सुन सोमभद्र गम्भीर हो गया और कहने लगा, ‘‘यह तुम स्वयं ही कह देना।’’
‘‘परन्तु उन्होंने तो मुझको इस पत्र के विषय में कुछ कहा नहीं। मैं अपने आप यह कैसे प्रकट कर सकता हूँ कि आपने मुझको सुरराज के पत्र के विषय में बता दिया है।’’
सोमभद्रजी को बात समझ में आ गई और वह मेरी बात आयुक्तक से कहने के लिए तैयार हो गये।
परिणाम यह हुआ कि मुझको एक विशाल निवास-गृह नदी के तट पर मिल गया और मैं मोदमन्ती तथा उसके माता-पिता, सभी उस निवास-गृह में जाकर रहने लगे।
इस गृह पर पहुँच जहाँ मेरा सम्पर्क देवेन्द्र से सीधा हो गया, वहाँ हस्तिनापुर वालों से भी हो गया। मैंने हस्तिनापुर वालों की इच्छा पूर्ण रूप से देवेन्द्र के पास लिखकर भेज दी।
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