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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

सत्य का संगीत

एक मित्र ने पूछा है कि मैं शास्त्रों को जला डालने के लिए कहता हूँ। और मेरी बातों से कहीं थोड़े कम समझ लोग भ्रांत होकर भटक न जाएं।

लोग भटकेंगे या नहीं, लेकिन जिन्होंने प्रश्न पूछा है, वे मेरी बात सुनकर जरूर भटक गए हैं। मैंने कब कहा कि शास्त्रों को जला डालें। मैंने सिर्फ अपनी किताबों को--अगर वे किसी दिन शास्त्र बन जाएं तो जला डालने को कहा है। मेरी किताबें हैं, उनको जला डालने के लिए मैं कह सकता हूँ। लेकिन दूसरों की किताबें जला डालने को मैं क्यों कहूँगा।

और फिर मैंने कहा - शास्त्रों को जला डालें--किताबों को जलाने के लिए मैंने कभी कहा नहीं है। अगर इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती है तो फिर मैं और जो कह रहा हूँ, वह क्या समझ में आता होगा?

मनुष्य के जीवन में शास्त्र न रह जाएं--जरूर मैं चाहता हूँ। क्योंकि किसी भी किताब को शास्त्र कहना, मनुष्य के सत्य की खोज को चोट पहुचाना है, बाधा पहुचानी है। लेकिन हम शायद सुनते नहीं, या सुनते हैं तो पूर्वाग्रह से भरे हुए सुनते हैं। पहले से ही हमारा मन तैयार होता है। सुनते समय भी हम अपने मन में कुछ हिसाब-किताब लगाते रहते हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ और क्या नहीं कह रहा हूँ। शायद इसीलिए कठिनाई होती है समझने में, अन्यथा बातें बहुत सीधी और साफ हैं।

सुनने के लिए मन साफ हो तो बातें बहुत सीधी और साफ हैं। और मन उलझा हुआ हो तो फिर चीजों के अर्थ, शब्दों के अर्थ बड़े विकृत रूप ले लेते हैं। और ऐसे ही मन को लेकर आप शास्त्रों को भी पढ़ते होंगे। उनमें से भी जो अर्थ आप निकाल लेते होंगे, वह अर्थ भी इतना ही विकृत होता होगा।

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