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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

सभी होशियार लोग कुछ न कुछ शर्त जरूर पीछे लगा देते हैं। ताकि जब मंत्र सिद्ध न हो, तो कहने को रह जाए कि शर्त पूरी नहीं हुई। नहीं तो मंत्र तो बराबर सिद्ध होता। शर्त तुमने पूरी नहीं की, कसूर तुम्हारा है। और शर्त कुछ ऐसी होती है कि वे पूरी हो ही नहीं सकती। सने एक शर्त लगा दी। उसने कहा, यह मंत्र ले जाओ, पांच ही बार पढ़ना, सिद्ध हो जाएगा आज रात। लेकिन जैसे ही वह उतरने लगा, सीढियों से मंत्र लेकर। उसने कहा, ठहरो, मैं शर्त तो भूल ही गया बताना। उसके बिना तो कुछ होगा नहीं। कौन सी शर्त?

कहा, बंदर का स्मरण न आए। बस पांच बार पढ़ लेना, बिना बंदर को स्मरण किए, सब ठीक हो जाएगा।

उस युवक ने कहा, क्या शर्त बताई है आपने भी फिजूल, जिंदगी हो गई मुझे बंदर का स्मरण नहीं आया। मैं कोई डार्विन का भक्त थोड़े ही हूँ कि मुझे बंदर का स्मरण आता हो। मैं डार्विन को मानता ही नहीं। मैं यह विकासवाद, यह ईवलूशन कुछ नहीं मानता। बंदर से मेरा क्या नाता। बंदर कोई मेरे मां-बाप थोड़े ही हैं।

लेकिन उसे पता चला कि डार्विन को मानो या न मानो--बंदर को रोक लगा दी गई थी, बंदर आना शुरू हो गया। वह चला भी था, सीढियां भी नहीं उतर पाया था कि उसने देखा भीतर बंदर मौजूद हो गया। वह बहुत घबड़ाया। बाहर बंदर हो तो भगा भी सकते हैं, अब भीतर हो तो क्या करें? घर पहुँचते-पहुँचते उसने एक बंदर को हटाने की कोशिश की, उसने पाया कि और बंदर चले आ रहे हैं। घर पहुँचते-पहुँचते उसके मन में बंदर ही बंदर बैठ गए।

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