लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति

असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

434 पाठक हैं

माथेराम में दिये गये प्रवचन

तो आप छिपा लेना चाहेंगे पच्चीस तरह के तर्क जाल में कि नहीं, मैं गुलाम कहाँ हूँ। कौन कहता है कि मैं गुलाम हूँ? लेकिन इतनी जल्दी छिपाने की कोशिश आप न करें। छिपाते रहे हैं गुलामी को अच्छे-अच्छे शब्दों में, इसीलिए गुलामी आज तक शेष है। यह कभी की समाप्त हो जानी चाहिए थी। इसके बचे रहने का कोई कारण नहीं है। लेकिन हम छिपाते हैं। और हम बहुत होशियार लोग हैं। आदमी मर जाता है तो सुंदर कपड़े से ढांक देते हैं, फूल रख देते हैं ऊपर। घर में कहीं गंदगी होती है, खूबसूरत पर्दा टांग देते हैं। शरीर सुंदर नहीं होता तो सुदर कपड़ों से ढाक लेते हैं।

हम, जहाँ-जहाँ कुरूपता होती है, सुंदर से ढांक देते हैं। जहाँ-जहाँ असत्य होता है, सत्य के शब्दों से ढांक देते हैं। सब तरफ से ढाक देते हैं फिर वह चीज बची रह जाती है। फिर उससे छूटने को हम खुद ही भूल जाते हैं। हम खुद ही भूल जाते हैं कि हमने कुछ छिपा रखा है। हम अपनी गुलामी को छिपाए हुए हैं और हमने अच्छे-अच्छे शब्दों में उसे ढांक लिया है।

गुलामी को छिपाएं न, अच्छे-अच्छे शब्दों में उसे ढांके न, उसे देखें, ठीक से उसे देखें। देखने मात्र से वह न होना शुरू हो जाती है। वह वस्तुतः है नहीं। आप देखते नहीं हैं, आप अंधे हैं, इसलिए प्रतीत होती है। आप देखना शुरू करें, स्वतंत्रता अनुभूत होगी। स्वतंत्रता के साथ-साथ सत्य भी आएगा, आनंद भी आएगा। सत्य और आनंद स्वतंत्रता के ही परिणाम हैं।

आज इतना ही। अब हम ध्यान के लिए बैठें।

साधना-शिविर,
माथेरान, दिनांक 19-10-67 सुबह

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book