ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
अहंकार को लेकर कोई कभी ईश्वर तक नहीं पहुँचा है, न पहुँच सकता है। खो देना पड़ेगा स्वयं को तो। छोड़ देना पड़ेगा स्वयं के इस भाव को कि मैं हूँ। इसे हम बड़े जोर से पकड़े हुए हैं कि ''मैं हूँ'। एक सख्त दीवाल बन गई हमारे चारों तरफ, जिसमें कोई किरणें प्रकाश नहीं करती, नहीं प्रवेश कर पाती है। छोड़ देना होगा इस ''मैं' को। तो मैं ईश्वर के दर्शन करना चाहता हूँ--यह भाषा ही गलत है।
और दूसरी बात। ईश्वर के दर्शन की बात भी गलत है। ईश्वर का दर्शन कोई आदमी का दर्शन थोड़े ही हैं कि आप गए और सामने खड़े हो गए और आपने दर्शन कर लिया। ईश्वर कोई व्यक्ति तो नहीं है। कोई रूप-रंग, कोई रेखा तो नहीं है। ईश्वर के दर्शन का मतलब किसी व्यक्ति का कोई दर्शन थोड़े ही मिल जाने वाला है। ईश्वर के दर्शन का मतलब है वह जो जीवत चेतना है, सर्वव्यापी, वह जो ऊर्जा है, वह जो शक्ति है जीवन की, वह जो सृजन का मूल-स्रोत है, वह जो सब तरफ व्याप्त अस्तित्व है, वह जो एक्जिसटेंस है--वही सब, उस सबका इकट्ठापन, उसकी टोटेलिटी, उसकी होलनेस, यह अस्तित्व की समग्रता और पूर्णता ही, ईश्वर है।
तो जिस दिन मेरे अहंकार की बूंद इस विराट अस्तित्व के सागर में खोने को राजी हो जाती है, उसी दिन मैं उसे उपलब्ध हो जाता हूँ, मैं उसे जान लेता हूँ। बूंद खो जाए तो सागर के साथ एक हो जाती है। लेकिन बूंद कहे कि मैं सागर को जानना चाहती हूँ, फिर बहुत कठिनाई है। बूंद कहे कि मैं मिटने को राजी हूँ, तो जिस जगह वह मिट जाएगी, उसी जगह वह सागर को उपलब्ध हो जाती है--वही मिल जाएगी सागर से। अहंकार की बूंद लिए रास्ता तय नहीं हो सकता है।
इसलिए यह मत पूछें कि मैं ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता हूँ नहीं, न तो ''मैं' ईश्वर के दर्शन को उपलब्ध हो सकता है, और न ईश्वर का दर्शन किसी व्यक्ति का दर्शन है।
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