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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

लेकिन हमारी दौड़ और तरह की है। हम एक ऐसे मकान में बैठे हुए हैं कि कोई उपदेशक आकर हमको समझाता है कि मकान में आग लगी हुई है। हम उससे पूछते हैं, वह तो ठीक है, लगी होगी, लेकिन हम कब तक निकल पाएंगे इस मकान से। साफ है मतलब। उपदेशक कहता है आग लगी है, इसलिए हमने मान लिया आग लगी है, अब हम पूछ रहे हैं कि कब तक निकल पाएंगे।

हमको आग दिखाई पड़ जाए तो हम यह पूछेंगे कि कब तक निकल पाएंगे? उपदेशक पीछे रह जाएगा, हम पहले निकल जाएंगे। उसको एक धक्का देंगे कि रास्ता छोड़ो, मुझे बाहर जाने दो, तुम भला फिर समझाना किसी को। अब यहाँ समझने की फुर्सत नहीं है मुझे। हम उसे धक्का देंगे और बाहर निकल जाएंगे।

लेकिन हमें तो आग दिखाई नहीं पड़ती। लोग समझाते हैं कि आग लगी हुई है। जीवन में दुःख है, पीडा है--लोग समझाते हैं। हमारी समझ में तो कुछ आता नहीं। इसलिए हमारी समझ में कुछ और ही आता है और ये समझाने वाले कुछ और समझाते हैं। एक झूठी प्यास पैदा हो जाती है। उस झूठी प्यास के कारण सवाल उठता है कब तक? अपनी प्यास को खोजना चाहिए--क्या वह सच्ची है और न हो सच्ची तो उस प्यास को दो कौड़ी का समझकर फेंक देना चाहिए। चाहे वह ईश्वर की ही प्यास क्यों न हो। झूठी प्यास का कोई मूल्य है? झूठी प्यास का कोई मूल्य नहीं है। फिर जो हमारी प्यास हो, उसी को ठीक से खोजना चाहिए। और जब उस सारी खोज में नहीं मिलेगा कुछ, तब वह खोज पैदा होगी, जो उसकी है--परमात्मा की, सत्य की।

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