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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

सृजन का सूत्र

मेरे प्रिय आत्मन्,

मनुष्य एक तिमंजिला मकान है। उसकी एक मंजिल तो भूमि के ऊपर है, बाकी दो मंजिल जमीन के नीचे। उसकी पहली मंजिल में, जो भूमि के ऊपर है, थोड़ा प्रकाश है। उसकी दूसरी मंजिल में, जो जमीन के नीचे दबी है और भी कम प्रकाश है। और उसकी तीसरी मंजिल में जो बिलकुल भूगर्भ में छिपी है, पूर्ण अंधकार है, वहाँ कोई प्रकाश नहीं है।

इस तीन मंजिल के मकान में--जो कि मनुष्य है, अधिक लोग ऊपर की मंजिल में ही जीवन को व्यतीत कर देते हैं। उन्हें नीचे की दो मंजिलों का न तो कोई पता होता है, न खयाल होता है। ऊपर की मंजिल बहुत छोटी है। नीचे की दो मंजिलें बहुत बड़ी हैं। और जो अंतिम अंधेरा भवन है नीचे, वही सबसे बड़ा है--वही आधार है सारे जीवन का।

जिस व्यक्ति को सत्य की और स्वयं की यात्रा करनी हो, उसे नीचे की दो मंजिलों में उतरना पड़ता है। सत्य की यात्रा आकाश की तरफ की यात्रा नहीं है, बल्कि पाताल के तरफ की यात्रा है। ऊपर की तरफ नहीं--नीचे और भीतर और गहरे उतरने का सवाल है।

जंगल में चारों तरफ हमारे वृक्ष खड़े हुए हैं। वृक्षों का एक हिस्सा तो वे पत्ते हैं, जो सूरज के बिलकुल सामने है और सूरज की रोशनी से प्रकाशित है। वृक्ष का दूसरा हिस्सा वे शाखाएं और पीड है, जो पत्तों के नीचे छिपी है, जिन पर कहीं-कहीं सूरज की रोशनी पड़ती भी है, कहीं-कहीं नहीं भी पड़ती है। वृक्ष का तीसरा हिस्सा, वे जड़ें हैं, जो जमीन के भीतर छिपी हैं, जिन पर सूरज की रोशनी कभी भी नहीं पड़ती। लेकिन वृक्ष के प्राण वृक्ष की जडों में हैं।

और जो वृक्ष को पूरा जानना चाहता हो, उसे जडों को जानना ही पड़ेगा, जो कि दिखाई नहीं पड़ती हैं, अदृश्य है, छिपी है। जो वृक्ष के पत्तों पर ही रह जाएगा, वह वृक्ष को नहीं समझ पाएगा।

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