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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

एक मित्र ने पूछा है, जो सत्य को जान लेते हैं, वे फिर बोलते ही नहीं और आप तो बोलते हैं।

बड़ी मजेदार बात पूछी है। तब तो उनेक हिसाब से ही और ये वही मित्र हैं, जिनने पहले प्रश्न पूछे हैं शास्त्रों के पक्ष में। तो ये शास्त्र बोले होंगे सत्य को जानने वाले बोलते नहीं हैं तो ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट जो बोलते हैं, ये तो सत्य को जानने वाले रहे नहीं फिर सत्य को न बोलने वाले का पता कैसे लगा आपको ओर कहाँ से, क्योंकि वह कभी बोला नहीं उसका पता आपको लग सकता नहीं। कैसे खबर मिली आपको क्या किसी आदमी को गूंगा देखकर आप समझ लेंगे कि यह सत्य को उपलब्ध हो गया है या किसी आदमी को चुपचाप बैठे देखकर समझ लेंगे कि यह सत्य को उपलब्ध हो गया है तब तो बड़ी आसान बात है। गूंगा होना भी कठिन नहीं, गूंगेपन को साधना भी कठिन नहीं।

और दो तीन वर्ष चुप रह जाएं तो फिर बोल भी नहीं सकते, चाहें तो भी। क्योंकि दो तीन वर्ष में बोलने का यंत्र फिर खराब हो जाता है। तब तो बड़ी आसान बात है। मामला सिर्फ बोलने के यंत्र को खराब करने का है। तो फिर सत्य को उपलब्ध आप हो जाएंगे। इतना आसान नहीं था।

लेकिन हाँ, प्रश्न पूछने वाले मित्र जैसे सोचने वाले बहुत लोग हुए हैं। कई लोग सोचते हैं आँख बंद कर लो, आँख फोड़ लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे। कोई सोचता है, मुंह बंद कर लो, वाणी बंद कर लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे। कोई सोचता है, कान बंद कर लो। जो और भी बहुत अग्रणी विचारक हैं, वे सोचते हैं, आत्मघात ही कर लो तो सत्य को उपलब्ध हो जाओगे। क्योंकि तब सभी इंद्रियां बंद हो जाएंगी। बोलना तो एक ही इंद्रिय है। आत्मघात करने से सभी इंद्रियां बंद हो जाती हैं। सो जल समाधि लेने वाले और मिट्टी में समाधि लेने वाले और मरने वालों का लंबा सिलसिला है। आत्महत्या करने वालों का। वे भी सत्य को उपलब्ध हो जाते हैं?

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