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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

शब्दों का एक रोग है हमारे मन को। हम उन्हें पकड़कर इकट्ठा कर लेते हैं। जैसे हम धन इकट्ठा करते हैं, ऐसे ही हम शब्द इकट्ठे कर लेते हैं। और जितने ज्यादा शब्द हमारे मन पर इकटठे हो जाते हैं, उतना चीजों को सीधा देखना कठिन हो जाता है।

एक फकीर था नसरुद्दीन। एक घर में नौकरी करता था। उस घर के मालिक ने दूसरे दिन ही उसे  कहा कि तुम बहुत अजीब आदमी हो। तीन अंडे खरीदकर लाने थे, तुम तीन बार बाजार गए। तीन अंडे एक ही बार में लाए जा सकते हैं। तीन बार जाने की कोई जरूरत नहीं है।

बात बिलकुल सीधी ओर साफ थी कि तीन अंडे खरीदने हों तो वह एक अंडा खरीदकर लाया, उसको रखकर फिर गया, फिर दूसरा खरीदकर लाया, फिर तीसरा खरीदकर लाया। तो उसके मालिक ने कहा, ऐसे काम नहीं चलेगा। तीन बार जाने की जरूरत न थी। एक बार जाना काफी था। उस नौकर ने कहा, आप निश्विंत रहें, मैंने आपका शब्द समझ लिया, आगे ऐसा ही होगा।

आठ दिन बाद उसका मालिक बीमार पडा। उसने कहा, जाओ, वैद्य को बुला लाओ। वह वैद्य को भी बुला लाया और आठ-दस आदमियों को और बुला लाया। उसके मालिक ने कहा, वैद्य तो ठीक है, लेकिन ये आठ-दस आदमी कैसे? उसने कहा, मैंने सोचा कि वैद्य को ले चलूंगा, हाथ देखकर कहेगा, फलानी दवा खरीदकर लाओ--मैं ड्रगिस्ट को भी ले आया, एक केमिस्ट को भी लिवा लाया, दवा बेचने वाले को भी ले आया। फिर मैंने सोचा दवा ने काम किया या न किया, आप बचे या न बचे, तो एक कब्र खोदने वाले को भी लिवा लाया हूँ।

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