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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

वह आदमी हंसने लगा और उसने कहा, मैं कुछ वर्ष पहले आया था, लेकिन तब दूसरा आदमी यही कहता था कि मैं मालिक हूँ यहाँ का। उस राजा ने कहा, वे मेरे पिता थे। उसने कहा, और भी मैं कुछ साल पहले आया था, तब एक तीसरा ही आदमी यह कहता था कि मैं मालिक हूँ यहाँ का। वे मेरे पिता के पिता थे।

उस संन्यासी ने कहा, मैं कुछ वर्षों बाद फिर आऊंगा, तुम मुझे मिलोगे यहाँ कहने को कि मैं मालिक हूँ? जब हमेशा मालिक बदल जाते हैं तो उसका मतलब--यह सराय है--मैं ठहर सकता हूँ, इस सराय में - अगर यह तुम्हारा निवास है तो फिर वे लोग कहाँ गए, जिनका पहले यह निवास था? वे कहाँ हैं?

उस राजा ने कहा कि शायद बात तुम्हारी ठीक है। हम कुछ दिन ठहरते हैं और चले जाते हैं। उसने द्वार बंद करवा दिए और कहा, कहीं ऐसा तो नहीं कि रात जो छप्पर पर ऊंट खोजता था, वह तुम्हीं हो? उस आदमी ने कहा, मैं ही हूँ। छप्पर पर ऊंट खोजने आया था, ताकि तुम्हें कह सकूं कि सिंहासनों पर सत्य नहीं मिल सकता। और आज तुम्हारी सराय में मेहमान होने आया हूँ, ताकि तुम्हें कह सकूं कि यह तुम्हारा घर नहीं है।

लेकिन ऐसा आदमी चोट बहुत पहुँचाता है। उस राजा के प्राण कंप गए। बात तो सच थी। जिसको उसने अपना घर समझा था तो यह उसका घर था नहीं। लेकिन बड़ी चोट पहुँची। अपने घर में बैठे-बैठे अचानक पता चल जाए कि आप धर्मशाला में बैठे हैं--चोट नहीं पहुँचेगी? अपनी तख्ती-वख्ती लगाए बैठे थे घर के सामने, अचानक पता चला यह धर्मशाला है--चोट नहीं पहुँचेगी?

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