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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

सुकरात ने मरने के पहले कहा, मैं तो परम अज्ञानी हूँ। उसने कहा कि जब मैं युवा था, तब मुझे भ्रम था कि मैं जानता हूँ। फिर जैसे-जैसे मेरी उम्र बढ़ी और अनुभव बढा, जैसे-जैसे मेरा ज्ञान बढ़ा तो मुझे दिखाई पड़ा कि ज्ञान कहाँ है मेरे पास। सब तो अज्ञान है, कुछ भी तो नहीं जानता, सब तो अननोन है। और अब जब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, तो मैं कह सकता हूँ कि मुझ जैसा अज्ञानी और कोई भी नहीं है।

सुकरात अंतिम क्षणों में अगर यह कह सके कि मैं परम अज्ञानी हूँ--तो फिर हमे सोचना पड़ेगा कि जिनको यह भ्रम होता हो कि मैं ज्ञानी हूँ, वे क्या होते होंगे?

जिनको यह खयाल होता है कि मैं ज्ञानी हूँ वे अज्ञानी होते होंगे। क्योंकि ज्ञानियों को तो अज्ञान का बोध होता है कि हम कुछ भी नहीं जानते।

क्या जानते हैं राह पर पड़े हुए पत्थर को भी नहीं जानते और आकाश में बैठे परमात्मा को जानने का दावा करते हैं। सामने घर के लगे वृक्ष के पत्ते और फूल को नहीं जानते, और वह जो सब तरफ अदृश्य है, उसको जानने का दावा अहंकार और पागलपन के सिवाय और क्या होगा?

तो मैंने उनसे निवेदन किया आपको यह खयाल है कि आप पंडित हैं यही भूल हो गई।

और इसी पंडित के लिए मैं कह रहा हूँ कि इसके पास ज्ञान नहीं होता। क्योंकि जिसके पास ज्ञान होता है, उसको पंडित होने का खयाल नहीं होता। उसके तो सारे खयाल गिर जाते हैं, वह तो इतना विनम्र हो जाता है कि उसे दिखाई पड़ता है, मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ।

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