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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

लेकिन गांव धोखे में आ गया। वह मुनि भी धोखे में आ गए। उन्होंने कई लोगों को संन्यास की शिक्षा दी थी। लेकिन अब तक वे लोग कहते थे कि हाँ, कभी संन्यास लेंगे जरूर। लेकिन इस आदमी ने तत्क्षण कपड़े फेंक दिए। गुरु के मन में भी शिष्य का बड़ा आदर हो गया। और फिर उस शिष्य ने जो तपश्चर्या की, उसका तो पूरे देश में कोई मुकाबला न रहा।

उसने जैसे कष्टपूर्ण उपवास किए, वह एक-एक पैरों पर घंटों खड़ा रहा। जैसे-जैसे कठिन उसने शीर्षासन किए, जितने उपद्रव हो सकते थे, सब उसने अपने साथ किए। उसके तप की सब जगह प्रशंसा और हवा फैल गई। दूर-दूर से लोग उसके दर्शन को आने लगे कि वह महातपस्वी, उसके तप का कोई प्रतियोगी न रहा।

लोग फिर भी भूल में पड़ गए। उन्हें पता नहीं कि वही क्रोधी आदमी है। और यह क्रोध का ही रूपांतरण है। यह क्रोध का ही रूप है कि वह आदमी आज धूप में खड़ा हुआ है, आज रेत में लेटा हुआ है, कल कांटों पर सोया हुआ है, महीनों भूखा है, सूखकर हड्डी हो गया है।

यह क्रोध का ही रूप है। यह किसी को खयाल न आया। लोग कहने लगे महातपस्वी है। ऐसा तपस्वी नहीं देखा गया था।

और जितनी उसको प्रशंसा मिलने लगी, उतना अहंकार उसका मजबूत होने लगा। उतना ही वह और तपस्या करने लगा। फिर तो उसकी ख्याति बहुत फैली। और जब किसी तपस्वी की ख्याति बहुत फैल जाए तो वह राजधानी की तरफ यात्रा करता है। उसने भी यात्रा की। वह तपस्वी राजधानी की तरफ चला। सभी तपस्वी अंततः राजधानी पहुँच जाते हैं। चाहे तप का कोई रूप हो--धार्मिक कि राजनैतिक, कि समाज सेवा का। लेकिन तपस्वी अंत में राजधानी जरूर पहुँचता है।

वह भी राजधानी की तरफ चला। क्योंकि अब छोटे-मोटे गांव काम नहीं कर सकते थे। अब इस तपस्वी के लिए, महातपस्वी के लिए महा-राजधानी चाहिए थी।

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