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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

मैंने सुना है लंदन में एक बहुत अद्भुत फोटोग्राफर था। उसने अपने स्टूडियो के सामने एक तख्ती लगा रखी थी। उस तख्ती पर उसने लिख रखा था अपनी फोटो उतारने के दाम की सूची लिख रखी थी। उस पर उसने लिख रखा था जैसे आप हैं, अगर वैसा ही फोटो उतरवाना है तो पांच रुपया। जैसे आप दिखाई पड़ते हैं, अगर वैसी फोटो उतरवानी है तो दस रुपया। जैसा आप चाहते हैं कि दिखाई पड़ें, अगर वैसी फोटो उतरवानी है तो पंद्रह रुपया।

एक गांव का ग्रामीण पहुँचा। वह भी चित्र उतरवाना चाहता था। वह हैरान हुआ कि चित्र भी क्या तीन प्रकार के हो सकते हैं। और उसने उस फोटोग्राफर से पूछा कि क्या पांच रुपए को छोड़कर कोई दस और पंद्रह का फोटो भी उतरवाने आता है? उस फोटोग्राफर ने कहा, तुम पहले आदमी हो, जो पांच रुपए वाला फोटो उतरवाने का विचार कर रहे हो। अब तक तो यहा कोई पांच रुपए वाला फोटो उतरवाने नहीं आया। जिनके पास पैसे होते हैं, वे पंद्रह रुपए वाला ही उतरवाते हैं। मजबूरी, पैसे कम हो तो दस रुपए वाला उतरवाते हैं। लेकिन मन उनका पंद्रह वाला ही रहता है कि उतरे तो अच्छा। पांच रुपए वाला तो कोई मिलता नहीं। जो जैसा है, वैसा चित्र कोई भी उतरवाना नहीं चाहता है।

हम अपने व्यक्तित्व को ऐसी पर्त-पर्त ढांके हुए हैं। इससे एक पाखंड पैदा हुआ है। इस पाखंड से सारा मनुष्य-चित्त रुग्ण हो गया है। और अगर कोई बहुत जिद्दी हो और अगर कोई पाखंडी न होना चाहता हो और आग्रह करता रहे अंधकार को, घृणा को, क्रोध को हटाने का, तो उसके लिए विक्षिप्त हो जाने के सिवाय कोई उपाय नहीं। वह पागल हो जाएगा। सभ्यता के बढ़ने के साथ-साथ पागलों की संख्या अकारण ही नहीं बढ़ती गई है। जितना सभ्य मुल्क, उतनी ही पागलों की अधिक संख्या।

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