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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


एकाएक सभी लोग चुप हो गये थे। सभी में कुछ होता है जो पहचान लेता है कि कोई महत्वपूर्ण घटना घटनेवाली है और उसके आसन्न प्रभाव के सामने क्षण-भर चुप हो जाता है। उस मौन में योके और जगन्नाथन् मानो बाकी सारी भीड़ से कुछ अलग हो गये थे। योके ने फिर कहा, 'मैंने चुना। हम अजनबी नहीं चुनते, अच्छे आदमी चुनते हैं। मैंने आदमी चुना - अच्छा आदमी। उसमें मैं जियूँगी। नाथन्, मुझे माफ कर दो।'

जगन्नाथन् की बाँह कुछ और घिर आयी और योके का सिर उसने अपने कन्धे पर टेक लिया।

योके ने कहा, 'किया?'

जगन्नाथन् ने उसके कान के पास मुँह से लाकर स्निग्ध भाव से पूछा, 'क्या?' फिर एकाएक उसका प्रश्न समझकर जल्दी से कहा, 'हाँ, योके! किया। माफ किया - पर माफ करने को कुछ है तो नहीं।'

योके ने बहुत ही धीमे, लगभग न सुने जा सकने वाले स्वर में कहा, 'मैंने भी किया। अच्छा आदमी। उसको भी -'

जगन्नाथन् ने पूछा, 'पॉल को?'

एक क्षणिक दुविधा का-सा भाव योके के चेहरे पर आ गया। या कि बेहोशी से पहले के क्षण में उसका मन बहक रहा था? फिर उसने कुछ कहा जिसे जगन्नाथन् ठीक-ठीक सुन नहीं पाया। इतना तो स्पष्ट ही था कि योके ने पॉल का नाम नहीं लिया था; कुछ और कहा था। क्या कहा था, यह जानने का अब कोई उपाय नहीं था, लेकिन साक्षी जगन्नाथन् को एकाएक ध्रुव निश्चय हो आया कि योके ने कहा था : 'ईश्वर को।'

फिर वह एकान्त सहसा विलीन हो गया। जगन्नाथन् ने पहचाना कि वह भीड़ से घिरा हुआ है और उसकी बाँह योके की जड़ देह को सँभाले हुए है।

उसने अनदेखती हुई-सी आँखें लोगों पर टिकाकर कहा, 'वह गयी।'

स्तब्ध भीड़ में केवल एक ही बूढ़े व्यक्ति को सूझा कि हाथ उठाकर रस्मी ढंग से क्रूस का चिह्न बना दे; वह चिह्न सूने आकाश में अजनबी-सा टँका रह गया।

।। समाप्त।।

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