ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
'तुम्हारी तबीयत तो ठीक है ?'
'अभी ठीक हो जाएगी - अभी हो जाएगी।' स्त्री की बात सुनकर जगन्नाथन् ने तय किया कि वह दवा नहीं थी, नशा ही था।
स्त्री का शरीर कुछ शिथिल हो आया। उसने उपरली सीढ़ी पर कोहनी टेककर पीठ दीवार के साथ लगा दी, फिर बायीं कलाई मोड़कर घड़ी की ओर देखा और शिथिल बाँहें अपनी गोद में गिर जाने दीं।
'क्या बजा है ? मैं कुछ देख नहीं पा रही।' उसका स्वर भी बड़ा दुर्बल जान पड़ रहा था।
जगन्नाथन् ने घड़ी देखकर समय बता दिया।
'तुम्हारा नाम क्या है ?'
जगन्नाथन् ने थोड़ा अचकचाते हुए कहा, 'जगन्नाथन्!'
'ज - जगन - ज - मैं सिर्फ नाथन् कहूँगी - छोटा भी है, अच्छा भी है। नाथन्, मुझे माफ कर दो। मैंने तुम्हें तकलीफ पहुँचायी है, लेकिन मेरे खिलाफ इस बात को याद मत रखना पीछे याद मत करना। मैं मर रही हूँ।'
'क्यों - तुमने क्या किया है - क्या कर डाला है ! अभी तुमने क्या खा लिया?'
'मैंने चुन लिया। मैंने स्वतन्त्रता को चुन लिया।' वह धीरे-धीरे बोली, 'मैं बहुत खुश हूँ। मैंने कभी कुछ नहीं चुना। जब से मुझे याद है कभी कुछ चुनने का मौका मुझे नहीं मिला। लेकिन अब मैंने चुन लिया। जो चाहा वही चुन लिया। मैं खुश हूँ।' थोड़ा हाँफकर वह फिर बोली, 'मैं चाहती थी कि मैं किसी अच्छे आदमी के पास मरूँ। क्योंकि मैं मरना नहीं चाहती थी - कभी नहीं चाहती थी!' फिर थोड़ा रुककर उसने कहा, 'मुझे माफ कर दो, नाथन्! तुम जरूर मुझे माफ कर दोगे। तुम अच्छे आदमी हो। बताओ - अच्छे आदमी हो न?'
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