ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
कुछ लोग हँस पड़े। पल-भर विमूढ़-सा रहकर जगन्नाथन् भी अपना सामान उठाकर उसके पीछे लपका। पीछे से किसी ने आवाज कसी, 'फाँस लिया!'
एक दूसरी आवाज आयी, उपहास से भरी हुई, 'वह भी तो बड़ा उतावला जान पड़ रहा है। दिन-दहाड़े पीछा कर रहा है।'
बाहर निकलते हुए जगन्नाथन् की चेतना ने इन आवाजों को भी ग्रहण किया। कुछ देर पहले सुनी हुई बातें भी उभरकर उसकी चेतना में आ गयी। उसने जान लिया कि आगन्तुका वेश्या है।
क्या वह लौट जाए? पनीर तो नष्ट हो चुका है। उस स्त्री ने जो किया उसका कारण जानकर भी अब क्या होगा? और वह उसका पीछा कर उसे पकड़ भी पाएगा तो क्या करेगा?
लेकिन वह अपने आप रुक गयी थी। वह बड़े जोर से हाँफ रही थी और उसके चेहरे पर यह ज्ञान स्पष्ट लिखा हुआ था कि जिस गली में वह घुस आयी है वह अन्धी गली है और अब वह बचकर नहीं भाग सकती -उसे अपना पीछा करनेवाले की ओर ही लौटना होगा। पास ही की सीढ़ी पर बैठ गयी और सिकुड़ गयी, जैसे मार खाने के लिए। जैसे कभी कुत्ता दुबककर बैठ जाता है, जब वह निश्चयपूर्वक जानता है कि बच नहीं सकेगा और उसे मार पड़ेगी ही।
जगन्नाथन् ने उसके पास पहुँचकर सधे हुए, मृदु स्वर में पूछा, 'वह तुमने क्या किया - क्या लाचारी थी?'
'मुझे क्या मालूम था कि पनीर है?' स्वर उद्धत था। 'मैं समझी कि यों ही रद्दी कुछ पड़ा होगा।'
इस बात का विश्वास करना कठिन था। फिर भी जगन्नाथन् ने कहा, 'लेकिन जब मैंने तुम्हें दिखाया तब तुम इतना तो कह सकती थीं कि - तुम्हें खेद है? वह मेरा अगले तीन दिन का खाना था। मैं - मैं कोई अमीर आदमी नहीं हूँ।'
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