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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।

योके

1


दुकान में काफी भीड़ थी। कई दिन वह बन्द रही थी, आज भी खुली थी तो कोई भरोसा नहीं था कि कितनी देर तक खुली रहेगी। और इसका कौन ठिकाना था कि बन्द न भी हो तो थोड़ी देर में सब माल चुक न जाएगा? सब लोग सहमे-सहमे-से थे, आतंक के वातावरण में प्रकट रूप में कोई ठेलम-ठेल नहीं हो रही थी लेकिन यह भाँपना कठिन नहीं था कि सभी ग्राहकों के लिए उस दुकान में आना या सौदा खरीदने की कोशिश प्राणरक्षा की दौड़ की ही एक मंजिल थी। सभी जानते थे कि जो पिछड़ जाएगा वह मर जाएगा; आगे बढ़कर किसी तरह से खरीदा जा सके खरीद लेने में ही खैरियत है।

दुकान गली में थी। उस गली में जर्मनों का आना-जाना नहीं था, लेकिन शहर पर उनका अधिकार होने के बाद से जो आतंक था उसकी लपट से वह गली भी बची नहीं थी। उसी आतंक के कारण दुकान जब बन्द होती थी तब बन्द होती थी और जब खुलती थी तब खुलती थी। उसी के कारण चीजों के दाम भी बहुत अधिक नहीं बढ़ते थे - माल जब चुक जाता था तब चुक जाता था। पिछवाड़े कहीं कभी लुक-छिपकर चोर-बाजारी होती भी हो तो सामने उसका कोई लक्षण नहीं था। यों चोर-बाजारी जितनी चौड़े में होती है उतनी लुक-छिपकर नहीं होती यह सभी जानते हैं। गली में जोखिम ज्यादा ही होता है।

भीड़ बहुत थी, लेकिन प्रतियोगी भाव के अलावा भी भीड़ में सब अकेले थे। बुझे हुए बन्द चेहरे, मानो घर की खिड़कियाँ ही बन्द न कर ली गयी हों बल्कि परदे भी खींच दिए गये हों; दबी हुई भावनाहीन पर निर्मम आवाजें, मानो जो माँगती हों, उसे जंजीर से बाँध लेना चाहती हों। अजनबी चेहरे, अजनबी आवाजें, अजनबी मुद्राएँ, और वह अजनबीपन केवल एक-दूसरे को दूर रखकर उससे बचने का ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने की असमर्थता का भी है - जातियों और संस्कारों का अजनबीपन, जीवन के मूल्य का अजनबीपन।

काले, गोरे और भूरे चेहरे; काले, लाल, पीले, भूरे गेहुएँ, सुनहले ओर धौले बाल, रँगे-पुते और रूखे-खुड्ढे चेहरे। चुन्नटदार, इस्तरी किये हुए और सलवट पड़े कपड़े; चमकीले और कीच-सने, चरमराते या फटफटाते या घिसटते हुए जूते। और चेहरों में, आँखों में, कपड़ों में, सिर से पैर तक अंग की हर क्रिया में निर्मम जीवैषणा का भाव - मानो वह दुकान सौदे-सुलुफ या रसद की दुकान नहीं है बल्कि जीवन की दुकान है ।

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