ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
एकाएक योके को उस मठवासी भिक्षु की बात याद आयी जिसने साधना के लिए अपने को एकान्त कोठरी में बन्द कर लिया था; लेकिन एक दिन एकाएक मानो जागकर, अपने अकेलेपन को पहचानकर और अपने आपसे डरकर अपनी कोठरी से सुरंग खोदना आरम्भ कर दिया था। सारा जीवन सुरंग खोदते-खोदते जब अन्त में एक दिन उसे खुली-सी जगह मिलती जान पड़ी और वह उसमें सिर डालकर ऊपर उठा - तो पहुँचा केवल उसी मठ की एक दूसरी एकान्त गुफा में जो कि उसी प्रकार बन्द थी जिस प्रकार उसकी अपनी कोठरी! अन्तर इतना ही था कि इस कोठरी में एक पुराना लोटा और एक ठठरी भी पड़ी हुई थी - किसी दूसरे साधक की जो उस एकान्त में मर गया था...
क्या इतनी ही है पुरुषार्थ की उपलब्धि - एक अकेली गुफा से बढ़कर एक दूसरी गुफा तक पहुँचाना जिसके अकेलेपन को एक ठठरी दोहरा रही है?
सेल्मा ने कहा था, 'वरण की स्वतन्त्रता कहीं नहीं है, हम कुछ भी स्वेच्छा से नहीं चुनते हैं।' ईश्वर भी शायद स्वेच्छाचारी नहीं है - उसे भी सृष्टि करनी ही है लेकिन उन्माद से बचने के लिए सृजन अनिवार्य है; वह सृष्टि नहीं करेगा तो पागल हो जाएगा।
लेकिन यहाँ तो रचना की बात नहीं है। मृत्यु की बात है - मृत्यु, मृत्यु, मृत्यु... क्या उसमें ही कहीं रचना के लिए, सृष्टि के लिए गुंजाइश है? क्या यही रहस्य था जिसका कुछ आभास सेल्मा को मिला था - कि वरण की स्वतन्त्रता नहीं है लेकिन रचना फिर भी सम्भव है और उसमें ही मुक्ति है?
योके ने फिर एक डोल भरकर बर्फ उठायी और धीरे-धीरे सेल्मा की ओझल देह पर डाल दी। यह मानो अनावश्यक था, अतिरिक्त था; लेकिन इस अनावश्यक अतिरिक्तता ने ही इस मदफन को सम्पूर्णता दी - अन्तिम रूप दिया।
भीतर लौटने से पहले योके ने एक बार चारों ओर नजर फिराकर देखा - कि बर्फ की क्षिति-रेखा पर, एक काले बिन्दु पर उसी की दीठ अटक गयी।
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