ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
एक बार तो कहानी सुनते-सुनते उसका यह विरोध-भाव एकाएक इतना प्रबल हो आया था कि उसने सेल्मा को टोक भी दिया था। 'दु:ख और कष्ट की बात - लेकिन दु:ख और कष्ट सच कैसे हैं अगर उनका बोध ही नहीं है?'
सेल्मा थोड़ी देर चुप रही थी। फिर उसने कहा था, 'यही तो मैं भी कहती हूँ - लेकिन दूसरी तरह से। बोध में से ही दर्द की सचाई है।' और थोड़ी देर रुककर, 'और मृत्यु की भी।'
योके ने इससे आगे सुनना नहीं चाहा था, इतना भी सुनना नहीं चाहा था। वह झपटती हुई उठकर दूसरे कमरे में चली गयी थी। लेकिन काम में अपने को उलझा नहीं सकी थी - काम कोई विशेष था ही नहीं। फिर आकर दो-एक बार सेल्मा को देख गयी थी और चली गयी थी, और अन्त में फिर आकर उसके पास बैठ गयी थी। योके अपने से कहती, 'वह वहाँ सेल्मा है यह यहाँ मैं हूँ। वह सेल्मा है, सेल्मा ही है, यह मैं नहीं जानती - क्योंकि यह भी नहीं जानती कि वह जीती है या मर चुकी है - वह ऐसी निश्चेष्ट निस्पन्द पड़ी है - लेकिन उसके चेहरे में कोई परिवर्तन नहीं आया है और उसकी आँखें बन्द हैं। सुना है - आँखें खुल जाती हैं - लेकिन मैं क्यों उसे देख रही हूँ? क्या अपने को यही बोध कराने के लिए कि मैं मरी नहीं हूँ? जीवन के अनुभव करने के लिए, अपने मैं-पन को पहचानने के लिए? मैं-पन का बोध और जीवितपन का बोध, दोनों का एक साथ अनुभव करने के लिए - दोनों को एक अनुभूति में ढालकर इकाई को भोगने के लिये?
और प्रश्न को इस रूप में अपने सामने रखकर वह बेचैन होकर उठ खड़ी होती और इधर-उधर चक्कर काटने लगती। क्योंकि यहीं कहीं कुछ झूठ था - एक धोखा था -क्योंकि इन दो अलग-अलग अनुभवों का मेल किसी तरह भी इस एक अनुभूति के बराबर नहीं होता कि 'मैं जीवित हूँ।' मैं जीवित हूँ - की अखंड अनुभूति तभी हो सकती है जब व्यक्ति उसके प्रति चेतन न हो। क्योंकि कोई भी, किसी प्रकार की भी आत्मचेतना अपने को अपनी अनुभूति से अलग कर देती है, तटस्थ कर देती है, साक्षी बना देती है; और जो साक्षी है वह भोक्ता कैसे है? जीवन की अनुभूति तभी हो सकती है जब अनुभव कर रहे होने का बोध न हो। और वहाँ बैठी हुई योके - उसे न केवल बराबर यह बोध था कि वह अनुभव कर रही है, वह चाहती थी कि वह अनुभव करे! और यह बोध, यह चाहना ही जीवन को झूठा किये देता था। ...झूठ, झूठ, झूठ!
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