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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


उसके स्वर में जो चिड़चिड़ापन था, उफ! उससे मुझे कितनी तृप्ति मिली! तो बुढ़िया का कवच भी नीरन्ध्र नहीं है, कहीं उसमें भी टूट है - कहीं-न-कहीं वह भी मृत्यु से डरेगी और रिरियाकर कहेगी कि नहीं, मैं मरना नहीं चाहती। एक प्रबल, दुर्दमनीय उल्लास, एक विजय का गर्व मेरे भीतर उमड़ आया। मैंने कहा, 'आंटी, तुम क्यों बैठकर माला के मनकों की तरह दिन और घडिय़ाँ गिनती हो? दिन जिस गति से जाएँगे उसी से जाएँगे - न गिनकर हम उन्हें आगे ठेल सकते हैं, न झोंककर रोक सकते हैं। जो काम करना है करते चलो। जीना है तो जीते चलो, बस!'

उसने कहा, 'हाँ, वह तो है। माला के मनके ही गिन रही हूँ। यह नहीं कि उससे कुछ बदलेगा। लेकिन जिसे माला के मनके ही गिनने हों उसे वैसा न करने का बस कहाँ है?'

'किसके लिए क्या तय है, इसका निश्चय अपने आप करते चलना तथा भगवान को अपने ऊपर ओढ़ लेना नहीं है?' मैंने कोशिश की कि मेरे मन में व्यंग्य का भाव जितना तीखा था प्रकट उतना न हो; लेकिन व्यंग्य उसे दीखे ही नहीं, यह मैं बिलकुल नहीं चाहती थी।

बुढ़िया एकाएक खड़ी हो गयी। उसका खड़ा होना भी इस समय मेरे लिए बिलकुल अप्रत्याशित था, पर उसने जो कहा वह मुझे अब भी अघटित लग रहा है। उसने कहा, 'हाँ योके, मैं भगवान को ओढ़ लेना ही चाहती हूँ। पूरा ओढ़ लेना कि कहीं कुछ भी उघड़ा रह न जाए। तुम नहीं जानतीं कि जिसे माला की मणि तक नहीं पहुँचना है उसके लिए एक-एक मनके का रूप कितना दिव्य होता है।'

उसने अपने पारदर्शी हाथ मेरे कन्धे पर रख दिये और कहा, 'देखो योके, मेरी आँखों में देखो। क्या तुम्हें नहीं दीखता कि भगवान के सिवा मेरे पास कुछ नहीं है ओढ़ने को!'

मैं जल्दी से कन्धे छुड़ाकर लौट आयी। जहाँ उसके हाथ पड़े थे वहाँ अब भी बर्फ की दो कटारें-सी मुझे चुभ रही हैं।

लेकिन उधर शायद बुढ़िया ने कुछ गुनगुनाना शुरू कर दिया है। वह स्वर गाने का नहीं है - शायद कोई प्रार्थना दुहरा रही है।

उफ, कब फटेगी यह कब्र, या कि कब निकलेगी वह बेशर्म जान - उसकी या मेरी या दोनों की!...

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