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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


मुझको हठात् गुस्सा आ गया। मैंने रुखाई से कहा, 'क्योंकि वह एकमात्र सचाई है - क्योंकि हम सबको मरना है।'

कहने को तो कह गयी; पर फिर मुझे क्लेश हुआ। लेकिन साथ-साथ माफी माँगते भी नहीं बना; मैंने कहा, 'इतने दिनों की निष्क्रियता से मेरी नर्व्ज ऐसी हो गयी हैं कि - '

बुढ़िया ने बात को वहीं छोड़ दिया। जितनी परोक्ष मैंने उसकी याचना की थी उतनी ही परोक्ष क्षमा देते हुए कहा, 'लेकिन क्रिसमस को कितने दिन हैं - दावत होगी। सब कुछ मैं बनाऊँगी।'

मैंने कहा, 'नहीं आंटी, सोच लें कि क्या-क्या बनेगा - पर बनाऊँगी मैं ही। आपको तकलीफ होती है, और मुझे तो काम चाहिए।'

बुढ़िया ने कहा, 'अच्छी बात है...'

फिर सोच लिया कि क्या-क्या बनेगा। कल और परसों शायद हम दोनों के पास ही काफी काम रहेगा - यद्यपि इस जगह में क्या कल और क्या परसों! और क्या क्रिसमस, सिवा इसके कि एक दिन को हम बड़ा दिन मान लेंगे - एक दिन को नहीं, घड़ी के एक खास चक्कर को।

8


24 दिसम्बर :

आधी रात।

कायदे से तो इस समय हमें साथ बैठकर क्रिसमस के आगमन का अभिनन्दन करना चाहिए था, लेकिन हम लोगों में बिना बहस के ही एक मौन समझौता हो गया था कि रात को देर तक नहीं बैठा जाएगा। एक तो हम दोनों कल और आज के काम से कुछ थक भी गये, दूसरे न जाने क्यों दिनभर ऐसा लगता रहा कि क्रिसमस की यह खुशी नकली या झूठी तो नहीं है लेकिन बहुत ही पतले काँच की तरह इतनी नाजुक है कि छूने से ही नहीं, जरा-सी आवाज से भी टूट जा सकती है - जैसे वायलिन के स्वर से काँच का गिलास चटक सकता है। हम दोनों मानो ऐसे ही पतले काँच की सतह पर बैठकर हँस रहे हैं; यह एक जादू ही है कि हमारे बैठने से ही वह काँच टूट नहीं गया लेकिन इतना तो निश्चय है कि हिलने-डुलने से टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाएगा। और जैसे उसके काँच के नीचे फिर और कुछ नहीं है, अतल अँधेरा गर्त है जिसमें हम गिरेंगे और गिरते चले जाएँगे। बुढ़िया अभी बड़े कमरे में बैठी है। हम लोगों ने क्रिसमस-तरु बनाना चाहा था, लेकिन हमारे किसी भी गढ़न्त पर विश्वास करने को तैयार होने पर भी, ईंधन की लकड़ी और डोर से बाँधकर हमने जो पेड़ बनाया उसे हमारी आँखें स्वीकार न कर सकीं। उतना झूठ हम नहीं निगल सके और आंटी ने ही कहा कि 'नहीं, इसे रहने दो।'

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