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अमृत द्वार
अमृत द्वार
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9546
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आईएसबीएन :9781613014509 |
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353 पाठक हैं
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
ये सारी बातें अगर साफ-साफ हम पूरी की पूरी, हम मनुष्य जाति के समाज के विकास को समझें, तो हमें दिखायी पड़ जाएगा कि ये बातें, जिन्होंने नीति की व्यवस्था दी है समाज को, उनकी आँखों में बहुत साफ हैं। इतनी साफ नहीं, जितनी आज हमें हो सकती है। इतनी साफ उनके सामने नहीं होगी लेकिन इसकी झलक उन्हें साफ है। एक सामान्य आदमी को मैं नहीं कह रहा हूं वह दान देते वक्त यह सोचता है कि यह समाज की व्यवस्था बनी रहेगी। लेकिन दान की व्यवस्था समाज की इस व्यवस्था को बनाने में सहयोगी है। अगर उसकी नीति का पूरा का पूरा आधार समाज की व्यवस्था को बचाने के लिए सहयोगी है।
मैं आपको कहूं-- न विनोबा सोचते हैं, न गांधी सोचते हैं यह कि वह जो बातें कह रहे हैं वे बातें हिंदुस्तान में किसी भी सामाजिक क्रांति के लिए बाधा हैं। न विनोबा सोचते हैं, न गांधी सोचते हैं। उनकी नीयत पर शक करना आसान नहीं है। वह कतई नहीं सोचते कि वे जो बातें कर रहे हैं वह आने वाले हिदुस्तान में किसी भी सामाजिक बड़ी क्रांति के लिए बाधा की बातें कर रहे हैं वे नहीं सोचते। स्पष्ट उन्हें नहीं है यह लेकिन जो भी समाज की जीवन अवस्था वे समझते हैं, वे जानते हैं कि उनकी बातें आने वाली सामाजिक कांति के लिए बाधा बन रही है। और हिंदुस्तान का पूंजीशाही वर्ग अगर उनको सहायता देता तो वह जानवर सहायता दे रहा है कि ये बातें रुकावट बनेंगी। अगर अमरीका उनकी सहायता करे तो वह जानवर सहायता कर रहा है कि ये बातें रुकावट बनेंगी। आज अमरीका करोड़पति सारी दुनिया में जिन लोगों को भी सहायता दे रहा है वह यह बात बहुत साफ जानकर सहायता दे रहा है कि बातें आने वाले समाजवाद या साम्यवाद को रोकने के लिए किस तरह से दीवारें बन सकती हैं। चाहे उन बातों को करने वालों को पूरा साफ न हो मेरा मतलब यह है कि डायनमिक्स जो हैं समाज के, समाज के सामान्य जीवन के चलने के जो उसूल हैं वह, उसमें की बात मैं कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि दान रोकना है, समाज को बचाना है। संतोष की बातें समाज में क्रांति के लिए बाधा बनता है। और जब तक हम दरिद्र को संतुष्ट रख सकते हैं तब तक हम पूंजीशाही को कायम रख सकते हैं। जिस दिन दरिद्र का असंतोष उस सीमा तक पहुँच जाएगा कि वह हमारी दान-दक्षिणा की शरारतों को समझ जाए और उसे दिखायी पड़ जाए कि ये सब बदमाशियां हैं और इनसे कुछ मेरी दरिद्रता मिटती नहीं, न मेरी दीनता मिटती है। बल्कि मेरी दीनता बनी रहती हैं इन्हीं बातों के कारण, एक तो क्रांति किसी समाज में पैदा होती है। वह जो मैंने कहा, एक-एक आदमी के लिए मैं नहीं कह रहा हूं कि वह कांससेसली है कि एक तरफ से वह भिखारी है तो उसे मैं दो पैसा देता हूं तो यह सोचकर देता हूं कि इससे पूंजीवाद बना रहेगा, समाज की व्यवस्था बनी रहेगी--यह कुछ सोचकर नहीं दे रहा हूं। लेकिन मनुष्य का मन चेतन और अचेतन तलों पर उस तरह काम कर रहा है। और उसमें हम सहयोगी बनते हैं।
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