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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…

शोक का पुरस्कार

आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक़्त था। मैं युनिवर्सिटी हॉल से खुश-खुश चला आ रहा था मेरे सैकड़ों दोस्त मुझे बधाइयां दे रहे थे। मारे खुशी के मेरी बांछें खिली जाती थीं। मेरी ज़िन्दगी की सबसे प्यारी आरजू कि मैं एम. ए. पास हो जाऊँ, पूरी हो गयी थी और ऐसी खूबी से जिसकी मुझे तनिक भी आशा न थी। मेरा नम्बर अव्वल था। वाइस चान्सलर साहब ने खुद मुझसे हाथ मिलाया था और मुस्कराकर कहा था कि भगवान तुम्हें और भी बड़े कामों की शक्ति दे। मेरी खुशी की कोई सीमा न थी। मैं नौजवान था, सुन्दर था, स्वस्थ था, रुपये-पैसे की न मुझे इच्छा थी और न कुछ कमी, माँ-बाप बहुत कुछ छोड़ गये थे। दुनिया में सच्ची खुशी पाने के लिए जिन चीजों की ज़रूरत है, वह सब मुझे प्राप्त थीं। और सबसे बढ़कर पहलू में एक हौसलामन्द दिल था जो ख्याति प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहा था।

घर आया, दोस्तों ने यहाँ भी पीछा न छोड़ा, दावत की ठहरी। दोस्तों की ख़ातिर-तवाज़ो में बारह बज गये, लेटा तो बरबस ख़याल मिस लीलावती की तरफ़ जा पहुँचा जो मेरे पड़ोस में रहती थी और जिसने मेरे साथ बी.ए. का डिप्लोमा हासिल किया था। भाग्यशाली होता वह व्यक्ति जो मिस लीला को ब्याहेगा कैसी सुन्दर है! कितना मीठा गला है! कैसा हंसमुख स्वभाव! मैं कभी-कभी उसके यहां प्रोफ़ेसर साहब से दर्शनशास्त्र में सहायता लेने के लिए जाया करता था। वह दिन शुभ होता था जब प्रोफ़ेसर साहब घर पर न मिलते थे। मिस लीला मेरे साथ बड़े तपाक से पेश आती और मुझे ऐसा मालूम होता था कि मैं ईसा मसीह की शरण में आ जाऊँ तो उसे मुझे अपना पति बना लेने में आपत्ति न होगी। वह शेली, बायरन और कीट्स की प्रेमी थी और मेरी रुचि भी बिलकुल उसी के समान थी। हम जब अकेले होते तो अक्सर प्रेम और प्रेम के दर्शन पर बातें करने लगते और उसके मुँह से भावों में डूबी हुई बातें सुन-सुनकर मेरे दिल में गुदगुदी पैदा होने लगती थी। मगर अफ़सोस, मैं अपना मालिक न था। मेरी शादी एक ऊँचे घराने में कर दी गयी थी और अगरचे मैंने अब तक अपनी बीवी की सूरत भी न देखी थी मगर मुझे पूरा-पूरा विश्वास था कि मुझे उसकी संगत में वह आनन्द नहीं मिल सकता जो मिस लीला की संगत में सम्भव है। शादी हुए दो साल हो चुके थे मगर उसने मेरे पास एक ख़त भी न लिखा था। मैंने दो तीन ख़त लिखे भी मगर किसी का जवाब न मिला। इससे मुझे शक हो गया था कि उसकी तालीम भी यों ही-सी है।

आह! क्या मैं इसी लड़की के साथ ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर हूँगा?….इस सवाल ने मेरे उन तमाम हवाई क़िलों को ढा दिया जो मैंने अभी-अभी बनाये थे। क्या मैं मिस लीला से हमेशा के लिए हाथ धो लूँ? नामुमकिन है। मैं कुमुदिनी को छोड़ दूँगा, मैं अपने घरवालों से नाता तोड़ लूँगा, मैं बदनाम हूँगा, परेशान हूँगा, मगर मिस लीला को ज़रूर अपना बनाऊँगा। इन्हीं खयालों के असर में मैंने अपनी डायरी लिखी और उसे मेज़ पर ख़ुलासा छोड़कर बिस्तर पर लेटा रहा और सोचते-सोचते सो गया।

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