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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


मैंने एक सिगरेट की डिबिया ली और एक सुनसान जगह पर बैठकर बीते दिनों की याद करने लगा कि यकायक मुझे उस धर्मशाला का ख़याल आया जो मेरे परदेश जाते वक़्त बन रहा था। मैं उधर की तरफ़ लपका कि रात किसी तरह वहीं काटूं, मगर अफ़सोस, हाय अफ़सोस, धर्मशाला की इमारत ज्यों की त्यों थी लेकिन उसमें ग़रीब मुसाफ़िरों के रहने के लिए जगह न थी। शराब और शराबखोरी, जुआ और बदलचलनी का वहाँ अड्डा था। यह हालत देखकर बरबस दिल से एक ठंडी आह निकली, मैं ज़ोर से चीख़ उठा—नहीं-नहीं और हज़ार बार नहीं यह मेरा वतन, मेरा प्यारा देश, मेरा प्यारा भारत नहीं है। यह कोई और देश है। यह योरप है, अमरीका है, मगर भारत हरग़िज नहीं।

अंधेरी रात थी। गीदड़ और कुत्ते अपने राग अलाप रहे थे। मैं दर्दभरा दिल लिये उसी नाले के किनारे जा कर बैठ गया और सोचने लगा कि अब क्या करूँ? क्या फिर अपने प्यारे बच्चों के पास लौट जाऊँ और अपनी नामुराद मिट्टी अमरीका की ख़ाक में मिलाऊँ? अब तो मेरा कोई वतन न था, पहले मैं वतन से अलग दूर था मगर प्यारे वतन की याद दिल में बनी हुई थी। अब बेवतन हूँ, मेरा कोई वतन नहीं। इसी सोच-विचार में बहुत देर तक चुपचाप घुटनों में सर दिये बैठा रहा। रात आँखों ही आँखों में कट गयी, घड़ियाल ने तीन बजाये और किसी के गाने की आवाज़ कानों में आयी। दिल ने! गुदगुदाया, यह तो वतन का नग़्मा है, अपने देश का राग है। मैं झट उठ खड़ा हुआ। क्या देखता हूँ कि पंद्रह-बीस औरतें, बूढ़ी, कमज़ोर, सफ़ेद धोतियाँ पहने, हाथों में लोटे लिये, स्नान को जा रही हैं और गाती जाती हैं—

प्रभु, मेरे अवगुन चित्त न धरो

इस मादक और तड़पा देने वाले राग से मेरे दिल की जो हालत हुई उसका बयान करना मुश्किल है। मैंने अमरीका की चंचल से चंचल, हँसमुख से हँसमुख सुन्दरियों की अलाप सुनी थी और बहुत बार उनकी ज़बानों से मुहब्बत और प्यार के बोल सुने थे जो मोहक गीतों से भी ज़्यादा मीठे थे। मैंने प्यारे बच्चों के अधूरे बोलों और तोतली बानी का आनन्द उठाया था। मैंने सुरीली चिड़ियों का चहचहाना सुना था। मगर जो लुफ़्त, जो मज़ा, जो आन्नद मुझे इस गीत में आया वह ज़िन्दगी में कभी और हासिल न हुआ था। मैंने खुद गुनगुनाना शुरू किया—
प्रभु, मेरे अवगुन चित न धरो

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