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सोज़े वतन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8640
आईएसबीएन :978-1-61301-187

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सोज़े वतन यानी देश का दर्द…


मलिका ने फूलों का हार मसऊद के गले में डाला। हीरे-जवाहरात उस पर चढ़ाये और सोने के तारों से टकी हुई मसनद पर बड़ी आन-बान से बैठ गयी। साजिन्दों ने बीन ले-लेकर विजयी अतिथि के स्वागत में सुहाने राग अलापने शुरू किये।

यहाँ तो नाच-गाने की महफिल थी उधर आपसी डाह ने नये–नये शिगूफ़े खिलाये। सरदार से शिकायत की कि मसऊद ज़रूर दुश्मन से जा मिला है और आज जान बूझकर फ़ौज का एक दस्ता लेकर लड़ने को गया था ताकि उसे ख़ाक और खून में सुलाकर सरकारी फ़ौज को बेचिराग कर दे। इसके सबूत में कुछ जाली खत भी दिखाये और इस कमीनी कोशिश में जबान की ऐसा चालाकी से काम लिया कि आख़िर सरदार को इन बातों पर यक़ीन आ गया पौ फटे जब मसऊद मलिका शेर अफ़गान के दरबार से विजय का हार गले में डाले सरदार को बधाई देने गया तो बजाय इसके कि कद्रदानी का सिरोपाव और बहादुरी का तमग़ा पाये उसको खरी-खोटी बातों के तीर का निशाना बनाया गया और उसे हुक्म मिला कि तलवार कमर से खोल कर रख दे।

मसऊद स्तम्भित रह गया। यह तेगा मैंने अपने बाप से विरसे में पाया है। और यह मेरे पिछले बड़प्पन की आख़िरी यादगार है। यह मेरी बाँहों की ताक़त और मेरी सहयोगी और मददगार है। इसके साथ कैसी-कैसी स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं, क्या मैं जीते जी इसे अपने पहलू से अलग कर दूँ? अगर मुझपर कोई आदमी लड़ाई के मैदान से क़दम हटाने का इल्ज़ाम लगा सकता, अगर कोई शक्स इस तेग़े का इस्तेमाल मेरे मुकाबिले में ज़्यादा कारगुजारी के साथ कर सकता, अगर मेरी बाँहों में तेग़ा पकड़ने की ताक़त न होती तो खुदा की क़सम, मैं खुद ही तेग़ा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इलज़ामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूँ ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहने वाले कुछ थोड़े से डाहियों ने सरदार नमकख़ोर का मन मेरी तरफ़ से फेर दिया है। ऐसा नहीं हो सकता।

मगर फिर उसे ख़याल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायेंगे और यक़ीनन मुझसे तलवार शमशीर के ज़ोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कने वाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। ज़रूर आपस में खून की नदियाँ बहेंगी और भाई-भाई का सिर काटेगा। खुदा न करे कि मेरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सरदार नमकख़ोर के बग़ल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कूवत से गुस्से को दबाता हुआ ख़ेमें से बाहर निकल आया।

मसऊद पर सारी फ़ौज गर्व करती थी और उस पर जानें वारने के लिए हथेली में सर लिये रहती थी। जिस वक़्त उसने तलवार खोली है, दो हज़ार सूरमा सिपाही मियान पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकते, कनौतियाँ बदल रहे थे। मसऊद के एक ज़रा से इशारे की देर थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में बेजोड़ न था, जब़्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह ज़िल्लत और बदनामी सब गवारा की, तलवार देना गवारा किया, बग़ावत का इलज़ाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फ़ौज में बग़ावत और हुक्म न मानने का ख़याल पैदा हो। और ऐसे नाजुक वक़्त में जब कि कितने ही दिलेर जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, मसऊद खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी पेशानी पर ज़रा भी बल नहीं आया, उसके तेवर ज़रा भी न बदले। उसने खून बरसाती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफ़ा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहाँ से उठा तो उसके दिल ने फ़ैसला कर लिया था कि यह बदनामी का दाग़ माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा।

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