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सप्त सुमन (कहानी-संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :164
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8626
आईएसबीएन :978-1-61301-184

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मुंशी प्रेमचन्द की सात प्रसिद्ध सामाजिक कहानियाँ


मान– मर्यादा से हाथ धोया। रोटियों के लाले पड़ गये। बाप– बेटे दोनों प्रात:काल से संध्या तक मजदूरी करते, तब कहीं आग जलती। दोनों में बहुधा तकरार हो जाती। रामेश्वर सारा अपराध बेटे के सिर रखता। जागेश्वर कहता, आपने मुझे रोका होता तो मैं क्यों इस विपत्ति में फँसता। उधर विश्वेश्वरराय साल भी न गुजरने पाया था कि बेचारे निराधार हो गये। ज़मीन निकल गयी, घर नीलाम हो गया, दस– बीस पेड़ थे, वे भी नीलाम हो गये। दुबेजी चौबे जी न बने, दरिद्र हो गये। इस पर विश्वेश्वरराय के ताने और भी गज़ब ढाते। यह विपत्ति का सबसे नोकदार काँटा था, आतंक का सबसे निर्दय आघात था।

दो साल तक इस दु:खी परिवार ने जितनी मुसीबतें झेलीं, यह उन्हीं का दिल जानता है। कभी पेट भर भोजन न मिला। हाँ, इतनी आन थी कि नीयत नहीं बदली। दरिद्रता ने सब कुछ किया, पर आत्मा का पतन न कर सकी। कुल– मर्यादा में आत्मरक्षा की बड़ी शक्ति होती है।

एक दिन संध्या-समय दोनों आदमी बैठे आग ताप रहे थे कि सहसा एक आदमी ने आ कर कहा– ठाकुर, चलो, विश्वेश्वरराय तुम्हें बुलाते हैं।

रामेश्वर ने उदासीन भाव से कहा– मुझे क्यों बुलायेंगे? मैं उनका कौन होता हूँ? क्या कोई उपद्रव खड़ा करना चाहते हैं?

इतने में दूसरा आदमी दौड़ा आकर बोला– ठाकुर, जल्दी चलो, विश्वेश्वरराय की दशा अच्छी नहीं है।

विश्वेश्वरराय को इधर कई दिनों से खाँसी बुखार की शिकायत थी; लेकिन शत्रुओं के विषय में हमें किसी अनिष्ठ की शंका नहीं होती। रामेश्वर और जागेश्वर कभी कुशल समाचार पूछने भी न गये। कहते, उन्हें क्या हुआ है। अमीरों को धन का रोग होता है। जब आराम करने को जी चाहा; पलंग पर लेट रहे, दूध में साबूदाना उबालकर मिश्री मिला कर खाया और फिर उठ बैठे। विश्वेश्वरराय की दशा अच्छी नहीं है, यह सुनकर भी दोनों जगह से न हिले। रामेश्वर ने कहा– दशा को क्या हुआ है। आराम से पड़े बातें तो कर रहे हैं।

जागे.– किसी बैद– हकीम को बुलाने भेजना चाहते होंगे। शायद बुखार तेज हो गया हो।

रामे.– यहाँ किसे इतनी फुरसत है। सारा गाँव तो उनका हितू है, जिसे चाहें भेज दें।

जागे.– हर्ज ही क्या है। जरा जा कर सुन आऊँ?

रामे.– जाकर थोड़े उपले बटोर लाओ, चूल्हा जले, फिर जाना। ठकुरसोहाती करनी आती तो आज यह दशा न होती।

जागेश्वर ने टोकरी उठाई और हाट की तरफ चला कि इतने में विश्वेश्वरराय के घर रोने की आवाजें आने लगीं। उसने टोकरी फेंक दी और दौड़ा चाचा के घर में जा पहुँचा। देखा तो उन्हें लोग चारपाई से नीचे उतार रहे थे। जागेश्वर को ऐसा जान पड़ा, मेरे मुँह में कालिख लगी हुई है। वह आँगन से दालान में चला आया और दीवार से मुँह छिपा कर रोने लगा। युवावस्था आवेशमय होती है; क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी हो जाती है।

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