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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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बाबूलाल– अच्छा, अबकी मेरे कहने से हानि उठा लो। देखूँ, ऐसा कौन बड़ा सिद्ध है, जो कड़ाही का रस उड़ा देता है? जरूर इसमें कोई न कोई बात है। इस गाँव में जितने कोल्हू जमीन में गड़े पड़े हैं, उनसे विदित है कि पहले यहाँ ऊख बहुत होती थी, किन्तु अब बेचारों का मुँह मीठा नहीं होने पाता।

शिवदीन– अरे भैया! हमारे होस में ई सब कोल्हू चलत रहे हैं। माघ-पूस में रात भर मेला लगा रहत रहा, पर जब से ई नासिनी विद्या फैली है, तब से कोऊ का ऊख के नेरे जाय का हियाव नाहीं परत है।

बाबूलाल– ईश्वर चाहेंगे तो फिर वैसी ही ऊख लगेगी। अबकी मैं इस मन्त्र को उलट दूँगा। भला यह बताओ, अगर ऊख लग जाए और माल पड़े, तो तुम्हारी पट्टी में एक हजार का गुड़ हो जायगा?

हरखू ने हँसकर कहा– भैया, कैसी बात कहत हौ– हजार त पाँच बीघा में मिल सकत है। हमारे पट्टी में २५ बीघा से कम ऊख नाहीं बा। कुछौ न परे तो अढ़ाई हजार कहूँ नाहीं गए हैं।

बाबूलाल– तब तो आशा है कि कोई पचास रुपये बयाई में मिल जायँगे। यह रुपये गाँव की सफाई में खर्च होंगे।

इतने में एक युवा मनुष्य दौड़ता हुआ आया और बोला– भैया! ऊह तहकीकात देखे गइल रहली। दारोगाजी सबका डाँटत मारते रहें! देवी मुखिया बोला– मुख्तार साहब, हमका चाहे काट डारो, मुदा हम एक कौड़ी न देबै। थाना-कचहरी जहाँ कहो, चलै के तैयार हई। ई सुनके मुख्तार लाल हुई गयेन। चार सिपाहिन से कहेन कि एहि का पकरि के खूब मारो। तब देबी चिल्लाय-चिल्लाय रोवै लागल, एतने में सरमाजी कोठा पर से खट-खट उतरेन और मुख्तार का लगे डाँटै। मुख्तार ठाढ़े झूर होय गयेन। दारोगाजी धीरे से घोड़ा मँगवाय के भागेन। मनई सरमाजी का असीसत चला जात हैं।

बाबूलाल– यह तो मैं पहले ही कहता था कि शर्माजी से यह अन्याय न देखा जायगा।

इतने में दूर से एक लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया एक आदमी के साथ शर्माजी आते दिखाई दिए। बाबूलाल ने असामियों को वहाँ से हटा दिया, कुर्सी रखवा दी और आगे बढ़कर बोले– आपने इस समय क्यों कष्ट किया, मुझको बुला लिया होता।

शर्माजी ने नम्रता से उत्तर दिया– आपको किस मुँह से बुलाता? मेरे सारे आदमी यहाँ पीटे जा रहे थे, उनका गला दबाया जा रहा था। और आप पास न फटके। मुझे आपसे मदद की आशा थी। आज हमारे मुख्तार ने गाँव में लूट मचा दी थी। मुख्तार को और क्या कहूँ ? बेचारा थोड़े औकात का आदमी है। खेद तो यह है कि आपके दारोगाजी भी उसके सहायक थे। कुशल यह थी कि मैं वहाँ मौजूद था।

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