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सप्त सरोज (कहानी संग्रह)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8624
आईएसबीएन :978-1-61301-181

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एक दिन गोदावरी ने गोमती से मीठा चावल पकाने को कहा। शायद वह रक्षाबंधन का दिन था। गोमती ने कहा– शक्कर नहीं है। गोदावरी यह सुनते ही विस्मित हो उठी! उतनी शक्कर इतनी जल्दी कैसे उठ गई! जिसे छाती फाड़कर कमाना पड़ता है, उसे अखरता है, खाने वाले क्या जानें?

जब पण्डितजी दफ्तर से आये, तब यह जरा-सी बात बड़ा विस्तृत रूप धारण करके उनके कानों में पहुँची। थोड़ी देर के लिए पण्डितजी के दिल में भी यह शंका हुई कि गोमती तो कहीं भस्मक रोग तो नहीं हो गया!

ऐसी ही घटना एक बार फिर हुई। पण्डितजी को बवासीर की शिकायत थी। लालमिर्च वह बिलकुल न खाते थे। गोदावरी जब रसोई बनाती थी, तब वह लालमिर्च रसोईघर में लाती ही न थी। गोमती ने एक दिन दाल में मसाले के साथ थोड़ी-सी लालमिर्च भी डाल दी! पण्डितजी ने दाल कम खाई। पर गोदावरी गोमती के पीछे पड़ गई। ऐंठकर वह बोली– ऐसी जीभ जल क्यों नहीं जाती?

पण्डितजी बड़े ही सीधे आदमी थे। दफ्तर से आये, खाना खाया, पड़कर सो रहे। वे एक साप्ताहिक पत्र मँगाते थे। उसे कभी-कभी महीनों खोलने की नौबत न आती थी। जिस काम में जरा भी कष्ट या परिश्रम होता, उससे वे कोसो दूर भागते थे। कभी-कभी उनके दफ्तर में थियेएटर के ‘‘पास’’ मुफ्त मिला करते थे। पर पण्डितजी उनसे कभी काम नहीं लेते, और ही लोग उनसे माँग ले जाया करते। रामलीला या कोई मेला तो उन्होंने शायद नौकरी करने के बाद फिर कभी देखा ही नहीं। गोदावरी उनकी प्रकृति का परिचय अच्छी तरह पा चुकी थी। पण्डितजी भी प्रत्येक विषय में गोदावरी के मतानुसार चलने में अपनी कुशल समझते थे।

पर रुई-सी मुलायम वस्तु भी दबकर कठोर हो जाती है। पण्डितजी को यह आठों प्रहर की चह-चह असह्य-सी प्रतीत होती, कभी-कभी मन में झुँझलाने भी लगते। इच्छा-शक्ति जो इतने दिनों तक बेकार पड़ी रहने से निर्बल-सी हो गई थी, अब कुछ सजीव-सी होने लगी थी।

पण्डितजी यह मानते थे कि गोदावरी ने सौत को घर लाने में बड़ा भारी त्याग किया है। उनका त्याग अलौकिक कहा जा सकता है; परन्तु उसके त्याग का भार जो कुछ है, वह मुझ पर है, गोमती पर उसका क्या एहसान? यहाँ उसे कौन-सा सुख है, जिसके लिए वह फटकार पर फटकार सहे? पति मिला है, वह बूढ़ा और सदा रोगी। घर मिला है, वह ऐसा कि अगर नौकरी छूट जाए तो कल चूल्हा न जले। इस दशा में गोदावरी का वह स्नेह-रहित बर्ताव उन्हें बहुत अनुचित मालूम होता।

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