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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट


ज्ञानी– वह तो मुझसे कहते थे दो-चार महीनों के लिए पहाड़ों की सैर करने जाऊंगा। डाक्टर ने कहा है, रहोगे तो तुम्हारा स्वास्थ्य बिगड़ जायेगा। आजकल कुछ दुर्बल भी तो हो गये है। बाबूजी एक बात पूछूं, बताओगे! तुम्हें भी इनके स्वभाव मे कुछ अन्तर दिखायी देता है? मुझे तो बहुत अन्तर मालूम होता है। वह इतने नम्र और सरल नहीं थे। अब वह एक-एक बात सावधान होकर कहते हैं कि कहीं मुझे बुरा न लगे। उनके सामने जाती हूँ तो मुझे देखते ही मानो नींद से चौंक पड़ते हैं और इस भांति हंसकर स्वागत करते हैं जैसे कोई मेहमान आया हो। मेरा मुँह जोहा करते हैं कि कोई बात कहे और उसे पूरी कर दूँ। जैसे घर के लोग बीमार का मन रखने का यत्न करते हैं या जैसे कि किसी शोक-पीड़ित मनुष्य के साथ लोगों का व्यवहार सदय हो जाता है, उसी प्रकार आजकल पके हुए फोड़े की तरह मुझे ठेस से बचाया जाता है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में नहीं आता। खेद तो मुझे यह है कि इन सारी बातों में दिखावट और बनावट की बू आती है। सच्चा क्रोध उतना हृदयभेदी नहीं होता जितना कृत्रिम प्रेम।

कंचन– (मन में) वही बात है। किसी बच्चे से हम अशर्फी ले लेते हैं कि खो न दे तो उसे मिठाइयों से फुसला देते हैं। भाई साहब ने भाभी से अपना प्रेम रत्न छीन लिया है और बनावटी स्नेह और प्रणय से इनको तसकीन देना चाहते हैं। इस प्रेम-मूर्तिका अब परमात्मा ही मालिक है। (प्रकट) मैंने तो इधर ध्यान नहीं दिया। स्त्रियां सूक्ष्मदर्शी होती हैं...

[खिदमगर आता है। ज्ञानी चली जाती है।]

कंचन– क्या काम है?

खिदमतिगार– यह सरकारी लिफाफा आया है। चपरासी बाहर खड़ा है।

कंचन– (रसीद की बही पर हस्ताक्षर करके) यह सिपाही को दो। (खिदमतगार चला जाता है।) अच्छा, गाँववालों ने मिलकर हलधर को छुड़ा लिया। अच्छा ही हुआ। मुझे उससे कोई दुश्मनी तो थी नहीं। मेरे रुपये वसूल हो गये। यह कार्यवाई न की जाती तो कभी रुपये न वसूल होते। इसी से लोग कहते हैं कि नीचों को जब तक खूब न दबाओ। उनकी गाँठ नहीं खुलती। औरो पर भी इसी तरह दावा कर दिया गया होता बात-ही-बात में सब रुपये निकल आते। और कुछ न होता तो ठाकुरद्वारे में हाथ तो लगा ही देता। भाई साहब को समझाना तो मेरा काम नहीं, उनके सामने रौब, शर्म और संकोच से मेरी जबान ही न खुलेगी। उसी के पास चलूँ उसके रंग-ढंग देखूँ कौन है, क्या चाहती है, क्यों यह जाल फैलाया है? अगर धन के लोभ से यह माया रची है तो जो कुछ उसकी इच्छा हो देकर यहाँ से हटा दूँ। भाई साहब को और समस्त परिवार को सर्वनाश से बचा लूँ (फिर खिदमदगार आता है) क्या बार-बार आते हो? क्या काम है।? मेरे पास पेशगी के रुपये नहीं है।

खिदमतगार– हुजूर, रुपये नहीं मांगता। बड़े सरकार ने आपको याद किया है।

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