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संग्राम (नाटक)
संग्राम (नाटक)
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2014 |
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ :
ई-पुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 8620
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आईएसबीएन :978-1-61301-124 |
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10 पाठकों को प्रिय
269 पाठक हैं
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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट
सलोनी– इन दोनों को अब कभी अपना गाना न सुनाऊंगी।
हरदास– लो हम कानों में उंगली रखे लेते हैं।
सलोनी– हां, कान खोलना मत।
[गाती है।]
ढूंढ फिरी सारा संसार, नहीं मिला कोई अपना।
भाई भाई बैरी है गये; बाप हुआ जमदूत।
दया-धरम का उठ गया डेरा, सज्जनता है सपना।
नहीं मिला कोई अपना।
[जाती है।]
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पुस्तक का नाम
संग्राम (नाटक)
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