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नाटक-एकाँकी >> संग्राम (नाटक)

संग्राम (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8620
आईएसबीएन :978-1-61301-124

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मुंशी प्रेमचन्द्र द्वारा आज की सामाजिक कुरीतियों पर एक करारी चोट

छठा दृश्य

[सबलसिंह का भवन। गुलाबी और ज्ञानी फर्श पर बैठी हुई है। बाबा चेतनदास गालीचे पर मसनद लगाये लेटे हुए हैं। रात के ८ बजे हैं।]

गुलाबी– आज महात्मा जी ने बहुत दिनों के बाद दर्शन दिये।

ज्ञानी– मैंने समझा था कहीं तीर्थ करने चले गये होंगे।

चेतनदास– माता जी, मेरे को अब तीर्थयात्रा से क्या प्रयोजन? ईश्वर ही मन में है, उसे पर्वतों के शिखर और नदियों के तट पर क्यों खोजूं? वह घट-घट व्यापी है, वही तुममें है, वही मुझमें है, उसी की अखिल ज्योति है। यह विभिन्नता केवल बहिर्जगत में है, अंतर्जगत में कोई भेद नहीं है। मैं अपनी कुटी में बैठा हुआ ध्यानावस्था में अपने भक्तों से साक्षात् करता रहा हूं। यह मेरा नित्य नियम है।

गुलाबी– (ज्ञानी से) महात्मा जी अंतरजामी हैं। महाराज, मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहू ने उस पर न जाने कौन-सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह ला कर बहू के हाथ में देता है, वह चाहे कान पकड़ कर बैठाये, बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिएगा वह मेरे कहने में हो जाये, बहू की ओर से उसका चित्त फिर जाये। बस यही मेरा लालसा है।

चेतनदास– (मुस्करा कर) बेटे को बहू के लिए ही तो पाला-पोसा था। अब वह बहू का हो रहा है तो तेरे को क्यों ईर्ष्या होती है?

ज्ञानी– महाराज, वह स्त्री के पीछे इस बेचारी से लड़ने पर तैयार हो जाता है।

चेतन– वह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूं फेर सकता हूं, केवल इसको मुझ पर श्रद्धा रखनी चाहिए। श्रद्धा, श्रद्धा, श्रद्धा यही अर्थ, धर्म, कार्म, मोक्ष की प्राप्ति का मूलमंत्र है। श्रद्धा से ब्रह्म मिल जाता है। पर श्रद्धा उत्पन्न कैसे हो? केवल बातों ही से श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलो क्या दिखाऊं? तुम दोनों मन में कोई बात ले लो। मैं अपने योगबल से अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवी, पहले तुम मन में कोई बात लो।

ज्ञान– ले लिया महाराज।

चेतनदास– (ध्यान करके) बड़ी दूर चली गयी। ‘मोतियों का हार’ है न?

ज्ञानी– हां महाराज, यही बात थी।

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