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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है

संध्या हो गई थी। किंतु फागुन लगने पर भी सर्दी के मारे हाथ-पांव अकड़ते थे। ठंडी हवा के झोंके शरीर की हड्डियों में चुभे जाते थे। जाड़ा इंद्र की मदद पाकर फिर अपनी बिखरी हुई शक्तियों का संचय कर रहा था और प्राणपण से समय-चक्र को पलट देना चाहता था। बादल भी थे, बूंदें भी थीं, ठंडी हवा भी थी, कुहरा भी था। इतनी विभिन्न शक्तियों के मुकाबिले ऋतुराज की एक न चलती। लोग लिहाफ में यों मुंह छिपाए हुए थे, जैसे चूहे बिलों में से झांकते है। दुकानदार अंगीठियों के सामने, बैठे हाथ सेंकते थे। पैसों के सौदे नहीं, मुरौवत के सौदे बेचते थे। राह चलते लोग अलाव पर यों गिरते थे, मानों दीपक पर पतंगे गिरते हों। बड़े घरों की स्त्रियां मनाती थीं–मिसराइन न आए, तो आज भोजन बनाएं, चूल्हे के सामने बैठने का अवसर मिले। चाय की दुकानों पर जमघट रहता था। ठाकुरदीन के पान छबड़ी में पड़े सड़ रहे थे; पर उसकी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें फेरे ! सूरदास अपनी जगह पर तो आ बैठा था; पर इधर-उधर से सूखी टहनियां बटोरकर जला ली थीं और हाथ सेंक रहा था। सवारियां आज कहां ! हां, कोई इक्का-दुक्का मुसाफिर निकल जाता था, तो बैठे-बैठे उसका कल्याण मना लेता था। जब से सैयद ताहिर अली ने उसे धमकियां दी थीं, जमीन के निकल जाने की शंका उसके हृदय पर छाई रहती थी। सोचता-क्या इसी दिन के लिए, मैंने इस जमीन का इतना जतन किया था? मेरे दिन सदा यों ही थोड़े ही रहेंगे, कभी तो लच्छमी प्रसन्न होंगी ! अंधों की आंखें न खुलें, पर भाग खुल सकता है। कौन जाने, कोई दानी मिल जाए, या मेरे ही हाथ में धीरे-धीरे कुछ रुपए इकट्ठे हो जाएं, बनते देर नहीं लगती। यही अभिलाषा थी कि यहां एक कुंआ और एक छोटा-सा मंदिर बनवा देता, मरने के पीछे अपनी कुछ निशानी रहती। नहीं तो कौन चलता है। झक्कड़ साईं ने बावली बनवाई थी, आज तक झक्कड़ की बावली मशूहर है। जमीन निकल गई, तो नाम डूब जाएगा। कुछ रुपए मिले भी, तो किस काम के?

नायकराम उसे ढाढस देता रहता था–तुम कुछ चिंता मत करो, कौन मां का बेटा है, जो मेरे रहते तुम्हारी जमीन निकाल ले। लहू की नदी बहा दूंगा। उस किरंटे की क्या मजाल, गोदाम में आग लगा दूंगा, इधर का रास्ता छु़ड़ा दूंगा। वह है किस गुमान में ! बस तुम हामी न भरना। किंतु इन शब्दों से जो तस्कीन होती थी, वह भैरों और जगधर की ईर्ष्यापूर्ण वितंडाओं से मिट जाती थी, और वह एक लंबी सांस खींचकर रह जाता था।

वह इन्हीं विचारों में मग्न था कि नायकराम कंधे पर लट्ठ रखे, एक अंगोछा कंधे पर डाले, पान के बीड़े मुंह में भरे, आकर खड़ा हो गया और बोला–सूरदास, बैठे टापते ही रहोगे? सांझ हो गई, हवा खानेवाले अब इस ठंड में न निकलेंगे। खाने-भर को मिल गया कि नहीं?

सूरदास–कहां महाराज, आज तो एक भागवान से भी भेंट न हुई।

नायकराम–जो भाग्य में था, मिल गया। चलो, घर चलें। बहुत ठंड लगती हो, तो मेरा यह अंगोछा कंधे पर डाल लो। मैं तो इधर आया था कि कहीं साहब मिल जाएं, तो दो-दो बातें कर लूं। फिर एक बार उनकी और हमारी भी हो जाए।

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