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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


न खाट, न बिस्तर, न बरतन, न भांड़े। एक कोने में मिट्टी का घड़ा था, जिसकी आयु का कुछ अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हांडी थी। एक पुराना, चलनी की भांति छिद्रों से भरा हुआ तवा, एक छोटी-सी कठौती और एक लोटा। बस, यही उस घर की सारी संपत्ति थी। मानव-लालसाओं का कितना संक्षिप्त स्वरूप ! सूरदास ने आज जितना अनाज पाया था, वह ज्यों-का-त्यों हांडी में डाल दिया। कुछ जौ थे, कुछ गेहूं, कुछ मटर, कुछ चने, थोड़ी-सी जुआर और मुट्ठी भर चावल। ऊपर से थोड़ा-सा नमक डाल दिया। किसकी रसना ने ऐसी खिचड़ी का मजा चखा है? उसमें संतोष की मिठास थी, जिससे मीठी संसार में कोई वस्तु नहीं। हांडी को चूल्हे पर चढ़ाकर वह घर से निकला, द्वार पर टट्टी लगाई और सड़क पर जाकर एक बनिए की दुकान से थोड़ा-सा आटा और एक पैसे का गुड़ लाया। आटे को कठौती में गूंथा और तब आध घंटे तक चूल्हे के सामने खिचड़ी का मधुर आलाप सुनता रहा। उस धुंधले प्रकाश में उसका दुर्बल शरीर और उसका जीर्ण वस्त्र मनुष्य के जीवन-प्रेम का उपहास कर रहा था।

हांडी में कई बार उबाल आए, कई बार आग बुझी। बार-बार चूल्हा फूंकते-फूंकते सूरदास की आंखों से पानी बहने लगता था। आंखें चाहे देख न सकें, पर रो सकती हैं। यहां तक कि वह ‘षस’ युक्त अवलेह तैयार हुआ। उसने उसे उतारकर नीचे रखा। तब तवा चढ़ाया और हाथों से रोटियां बनाकर सेंकने लगा। कितना ठीक अंदाज था। रोटियां सब समान थीं–न छोटी, न बड़ी न सेवड़ी, न जली हुई। तवे से उतार-उतारकर रोटियों को चूल्हें में खिलाता था, और जमीन पर रखता जाता था। जब रोटियां बन गई तो उसने द्वार पर खड़े होकर जोर से पुकारा–‘मिठ्ठू, आओ बेटा, खाना तैयार है।’ किंतु जब मिट्ठू न आया’ तो उसने फिर द्वार पर टट्ठी लगाई, और नायकराम के बरामदे में जाकर ’मिट्ठू-मिट्ठू’ पुकारने लगा। मिट्ठू वहीं पड़ा सो रहा था, आवाज सुनकर चौंका। बारह-तेरह वर्ष का सुंदर हंसमुख बालक था। भरा हुआ शरीर, सुडौल हाथ-पांव। यह सूरदास के भाई का लड़का था। मां-बाप दोनों प्लेग में मर चुके थे। तीन साल से उसके पालन-पोषण का भार सूरदास ही पर था। वह इस बालक को प्राणों से भी प्यारा समझता था।
आप चाहे फाके करे, पर मिट्ठू को तीन बार अवश्य खिलाता था। आप मटर चबाकर रह जाता था, पर उसे शकर और रोटी, कभी घी और नमक के साथ रोटियां खिलाता था। अगर कोई भिक्षा मे मिठाई या गुड़ दे देता, तो उसे बड़े यत्न से अंगोछे के कोने में बांध लेता और मिट्ठू को ही देता था। सबसे कहता, यह कमाई बुढ़ापे के लिए कर रहा हूं। अभी तो हाथ-पैर चलते हैं, मांग-खाता हूं, जब उठ-बैठ न सकूंगा, तो लोटा-भर पानी कौन देगा? मिट्ठू को सोते पाकर गोद में उठा लिया, और झोंपड़ी के द्वार पर उतारा। तब द्वार खोला। लड़के का मुंह धुलवाया, और उसके सामने गुड़ और रोटियां रख दी। मिट्ठू ने रोटियां देखीं, तो ठुनककर बोला–मैं रोटी और गुड़ न खाऊंगा। यह कहकर उठ खड़ा हुआ।

सूरदास–बेटा, बहुत अच्छा गुड़ है, खाओं तो। देखो, कैसी नरम-नमर रोटियां हैं। गेंहू की हैं।

मिट्ठू–मैं न खाऊंगा।

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