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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


माया तो अपने इलाकों की सैर कर रहा था, इधर स्थानीय राजसभा के सदस्यों का चुनाव होने लगा। ज्ञानशंकर इस सम्मान पद के पुराने अभिलाषी थे बड़े उत्साह से मैदान में उतरे, यद्यपि ताल्लुकेदार सभा के मन्त्री थे, पर ताल्लुकेदारों की सहायता पर उन्हें भरोसा न था। कई बड़े-बड़े ताल्लुकेदार अपने के गाँव प्रतिनिधि बनने के लिए तत्पर थे। उनके सामने ज्ञानशंकर को अपनी सफलता की कोई आशा न थी। इसलिए उन्होंने गोरखपुर के किसानों की ओर से खड़ा होने का निश्चय किया। वहाँ संग्राम इतना भीषण न था। उनके गोइन्दे देहातों में घूम-घूम कर उनका गुणगान करने लगे। बाबू साहब कितने दयालु, ईश्वरभक्त हैं, उन्हें चुन कर तुम कृतार्थ हो जाओगे। वह राजसभा में तुम्हारी उन्नति और उपकार के लिए जान लड़ा देंगे, लगान घटवाएँगे, प्रत्येक गाँव में गोचर भूमि की व्यवस्था करेंगे, नजराने उठवा देंगे, इजाफा लगान का विरोध करेंगे और इखराज को समूल उखाड़ देगे। सारे प्रान्त में धूम मची हुई थी। जैसे सहागल के दिनों में ढोल और नगाड़ों का नाद गूँजाने लगता है उसी भाँति इस समय जिधर देखिए जाति प्रेम की चर्चा सुनायी देती थी। डाक्टर इर्फानअली बनारस महाविद्यालय की तरफ से खड़े हुए। बाबू प्रियनाथ ने बनारस म्युनिसिपैलिटी का दामन पकड़ा। ज्वालासिंह इटावे के रईस थे, उन्होंने इटावे के कृषकों का आश्रय लिया। सैयद ईजाद हुसेन को भी जोश आया। वह मुसलिम स्वत्व की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए। प्रेमशंकर इस क्षेत्र में न आना चाहते थे, पर भवानीसिंह, बलराज और कादिर खाँ ने बनारस के कृषकों पर उनका मन्त्र चलाना शुरू किया। तीन-चार महीनों तक बाजार खूब गर्म रहा, छापेखाने को ट्रैक्टों के छापने से सिर उठाने का अवकाश न मिलता था। कहीं दावतें होती थी, कहीं नाटक दिखाये जाते थे। प्रत्येक उम्मीदवार अपनी-अपनी ढोल पीट रहा था। मानो संसार के कल्याण का उसी ने बीड़ा उठाया है।

अन्त में चुनाव का दिन आ पहुँचा। उस दिन नेताओं का सदुत्साह, उनकी तप्परता, उनकी शीलता और विनय दर्शनीय थी और वोट देने वालों का तो मानो सौभाग्य-सूर्य उदय हो गया था। मोहनभोग तथा मेवे खाते थे। और मोटरों पर सैर करते थे। सुबह से पहर रात तक रायों की चिट्ठियां पढ़ी जाती रहीं।

इसके बाद के सात दिन बड़ी बेचैनी के दिन थे। ज्यों-त्यों करके कटे। आठवें दिन राजपत्र में नतीजे निकल गये। आज कितने ही घरों में घी के चिराग जले, कितनों ने मातम मनाया। ज्ञानशंकर ने मैदान मार लिया, लेकिन प्रेमाश्रम निवासियों को जो सफलता प्राप्त हुई वह आश्चर्यजनक थी, इस अखाड़े के सभी योद्धा विजय-पताका फहराते हुए निकले। सबसे बड़ी फतह प्रेमशंकर की थी। वह बिना उद्योग और इच्छा के इस उच्चासन पर पहुँच गये थे। ज्ञानशंकर ने यह खबर सुनी तो उनका उत्साह भंग हो गया। राजसभा में बैठने का उतना शौक न रहा। बहुधा वृक्षपूंजों में सन्ध्या समय पक्षियों के कलरव से कान पड़ी आवाज नहीं सुनायी देती लेकिन ज्यों ही अन्धेरा हो जाता है और चिड़ियाँ अपने-अपने घोंसलों में जा बैठती हैं वहां नीरवता छा जाती है, उसी भाँति जाति के प्रतिनिधि गण राजसभा के सुसज्जित सुविशाल भवन में पहुँच कर शान्ति में मग्न हो गये थे। वे लम्बे-चौड़े वादे, वे बड़ी-बड़ी बात सब भूल गयीं। कोई मुवक्किलों के सेवा-सत्कार में लिप्त हुआ, कोई अपने बही-खाते की देख-भाल में, कोई अपने सैर और शिकार में जाति-हित की वह उमंग शांत हो गयी। लोग मनोविनोद की रीति से राजसभा में आते और कुछ निरर्थक प्रश्न पूछ कर या अपने वाक्य नैपुण्य का परिचय दे कर विदा हो जाते। वह कौन-सी प्रेरक शक्तियाँ थीं। जिन्होंने लोगों को इस अधिकार पर आसक्त कर रखा था। इसका निर्णय करना कठिन है, पर उनमें सेवाभाव का जरा भी लगाव न था– यह निर्भ्रान्त है। कारण और कार्य, साधन और फल दोनों उसी अधिकारी में विलीन हो गये।

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