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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुनकर गायत्री का हदय गद्गद हो जाता, लेकिन इतने दिनों यहाँ रहकर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मन्त्र का प्रतिहार करना सीख गई थी। बोली– यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोई-खोई-सी फिरूँगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगों के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुःख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते हैं यहाँ मन बहलाव को क्या सामग्री है? देह पर अपना वश है, उसे यहाँ रखूँगी। रहा मन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नहीं तो मेरी जान पर बन आयेगी।

ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गई थी, दगा का जवाब दगा से देना सीख गई थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल न गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेंगे। यह बाजी जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नए किले बाधने पड़ेंगे। गायत्री को यहाँ छोड़कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मेरे विचार से आपका प्रातःकाल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।

ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा– अच्छी बात है।

गायत्री– हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फँसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेंगे।

ज्ञानशंकर– जैसी आज्ञा।

यह कहकर वह मर्माहत भाव से उठकर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमकों होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।

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