सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
जब मैं अदालत में बयान दे रहा था तब सरम के मारे मेरी आँखें ऊपर न उठती थीं। मेरे जैसा कुकर्मी संसार में न होगा। जिन आदमियों के साथ रात-दिन का रहना-सहना, उठना-बैठना था, जो मेरे दुःख-दर्द में शरीक होते थे, उन्हीं के गर्दन पर मैंने छुरी चलायी। जब कादिर ने मेरा बयान सुन कर कहा, ‘बिसेसर, भगवान् से डरो’ उस घड़ी मेरा ऐसा जी चाहता था कि धरती फट जायें और मैं उसमें समा जाऊँ। मन होता था कि साफ-साफ कह दूं, ‘यह सब सिखायी-पढ़ाई बातें हैं’ पर दरोगा जी की ओर ज्यों ही आँख उठती थी मेरा हियाव छूट जाता था। जिस दिन से मनोहर ने अपने गले में फाँसी लगायी है उस दिन से मेरी नींद हराम हो गयी। रात को सोते-सोते चौंक पड़ता हूँ, जैसे मनोहर सिरहाने खड़ा हो। साँझ होते ही घर के केवाड़ बंद कर देता हूँ। बाहर निकलता हूँ तो जान पड़ता है, मनोहर सामने आ रहा है। उधर गाँव में अन्धेर मचा हुआ है। सबके बाल बच्चे भूखों मर रहे हैं। फैजू और कर्तार नित नये तूफान रचते रहते हैं। भगवान् सुक्खू चौधरी का भला करे, उनके हृदय में दया आयी, दो साल की मालगुजारी अदा कर दी, नहीं तो अब तक सारा गाँव बेदखल हो गया होता। इस पर फैज जला जाता है। जब सुक्खू आ जाते हैं तो भीगी बिल्ली बन जाता है, लेकिन ज्यों ही वह चले जाते हैं फिर वही उपद्रव करने लगता है। इन गरीबों का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। जिसे चाहता है मारता है, डाँट लेता है। एक दिन कादिर मियाँ के घर में आग लगवा दी। और तो और अब गाँव की बहू-बेटियों की इज्जत-हुरमत भी बचती नहीं दिखायी देती। मनोहर के घर साँस बहू में रार मची हुई है। दोनों अलग-अलग रहती हैं। परसों रात की बात है, फैजू और कर्तार दोनों बहू के घर में घुस गये। उस बेचारी ने चिल्लाना शुरू किया सास पहुँच गयी, और लोग भी पहुँच गये। दोनों निकलकर भागे। सवेरा होते ही इसकी कसर निकली। कर्तार ने मनोहर की दुलहिन को इतना मारा कि बेचारी पड़ी हल्दी पी रही है। यह सब पाप मेरे सिवा और किसके सिर पड़ता होगा? मैं ही इस सारी विपद् लीला की जड़ हूँ। भगवान् न जाने मेरी क्या दुर्गत करेंगे! काहे भैया, क्या अब कुछ नहीं हो सकता? सुनते हैं तुम अपील करने वाले हो, तो जल्दी कर क्यों नहीं देते? ऐसा न हो कि मियाद गुजर जाय। तुम मुझे तलब करा देना, मुझ पर दरोगा-हलफी का इलजाम जायेगा तो क्या! पर मैं अब की सब कुछ सच-सच कह दूँगा। यही न होगा, मेरी सजा हो जायेगी, गाँव का तो भला हो जायेगा। मैं हजार-पाँच सौ से मदद भी कर सकता हूँ।
प्रेमशंकर– हाईकोर्ट में तो मिसल देख कर फैसला होता है, किसी के बयान नहीं लिये जाते।
बिसेसर– भैया, कुछ देने-लेने से काम चले तो दे दो, हजार-पाँच सौ का मुँह मत देखो। मुझसे जो कुछ फरमाओ उसके लिए हाजिर हूँ। यह बात मेरे मन में समायी हुई है, पर आपको मुँह दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। आज कुछ सौदा लेने चला तो चौपाल के सामने फैजू मिल गये। कहने लगे– जाते हो तो यह रुपये लेते जाओ, मालिकों के घर भेजवा देना। मैंने रुपए लिये और डेवढ़ी पर जाकर छोटी बहू के पास रुपये भेज दिये। जब चलने लगा तो बड़ी बहू ने दीवानखाने में मुझे बुलाया। उनको देख कर ऐसा जान पड़ा मानो साक्षात् देवी के दर्शन हो गये। उन्होंने मुझे ऐसा-ऐसा उपदेश दिया कि आपसे क्या कहूँ। मेरी आँखें खुल गयीं। मन में ठान कर चला कि आपसे अपील दायर करने की। कहूँ, जिसमें मेरा भी उद्धार हो जाये। लेकिन दो-तीन बार आ-जा कर लौट गया। आपको मुँह दिखाते लाज आती थी। सूरज डूबते वक्त फिर आया, पर वहीं फाटक के पास दुविधा में खड़ा सोच रहा था कि क्या करूँ? इतने में आपके आदमियों ने देख लिया और आपकी शरण में ले आये। मुझ जैसे झूठे दगाबाज आदमी का इतबार ही क्या? पर अब मैं सौगन्ध खा के कहता हूँ कि फिर जो मेरा बयान लिया जायगा तो मैं एक-एक बात खोल कर कह दूँगा। चाहे उल्टी पड़े या सीधी। आप जरूर अपील कीजिए।
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