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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


कई आदमियों ने इसका अनुमोदन किया– हाँ-हाँ, पकड़ लो जाने न पाये।

जब तक प्रेमशंकर डाक्टर साहब के पास पहुँचे तब तक सैकड़ों आदमियों ने उन्हें घेर लिया। उसी बलिष्ठ युवक ने आगे बढ़कर डॉक्टर साहब के हाथ से रैकेट छीन लिया और कहा– बताइए साहब, लखनपुर के मामले में कितनी रिश्वत खायी है।

कई आदमियों ने कहा– बोलते क्यों नहीं; कितने रुपये उड़ाये थे?

डॉक्टर महोदय ने चिल्ला-चिल्ला कर नौकरों को पुकारना शुरू किया किन्तु नौकरों ने आना उचित न समझा।

एक आदमी बोला– यह बिना समझावन-बुझावन के न बतायेंगे।

प्रियनाथ– मैं तुम सबको जेल भिजवा दूँगा, रैसकल्स!

डॉक्टर साहब ने भय दिखला कर काम निकालना चाहा, पर यह न समझे कि साधारणतः जो लोग आँख के इशारे पर काँप उठते हैं वे विद्रोह के समय गोलियों की भी परवाह नहीं करते। उनके मुँह से इतना निकला था कि लोगों के तेवर बदल गये। शोर मचा, जाने न पाये, मार कर गिरा दो, देखा जायेगा।

इतने में प्रेमशंकर डॉक्टर साहब के पास कर खड़े हो गये। सैकड़ों लाठियां, छतरियाँ और छड़ियाँ उठ चुकी थीं। प्रेमशंकर को सम्मुख देखकर सब की-सब हवा में रह गईं, केवल एक लाठी न रुक सकी, वह प्रेमशंकर के कंधे में जोर से लगी।

उसी बलिष्ठ युवक ने डॉक्टर साहब को धिक्कार कर कहा, ‘उनके पीछे क्या चोरों की तरह छिपे खड़े हो। सामने आ जाओ तो मजा चखा दूँ। खूब रिश्वतें ले-ले कर खफीफ को शदीद और शदीद को खफीफ बनाया।

अभी यह वाक्य पूरा न होने पाया कि लोगों ने प्रेमशंकर को लड़खड़ा कर जमीन पर गिरते देखा। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं, पर सबको किसी अनिष्ट की सूचना हो गयी। चारों तरफ सन्नाटा छा गया। लोगों की उद्दंडता शंका में परिवर्तित हो गयी। लोग पूछने लगे, यह किसकी लाठी थी, यह किसने मारा? उसके हाथ तोड़ दो, पकड़ कर गर्दन मरोड़ दो, किसकी लाठी थी? सामने क्यों नहीं आता? क्या ज्यादा चोट आयी?

सहसा डॉ. प्रियनाथ ने उच्च स्वर से कहा, अधमरा ही क्यों छोड़ दिया? एक लाठी और क्यों न जड़ दी कि काम तमाम हो जाता? मूर्खों! तुम्हारा अपराधी तो मैं था, ‘इन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?

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