सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
ज्ञानशंकर को नींद न आयी। जरा आँखें झपक जातीं तो भयावह स्वप्न दिखायी देने लगते। कभी देखते, मैं गोमती में डूब गया हूँ और मेरा शव चिता पर जलाया जा रहा है। कभी नजर आता, मेरा विशाल भवन विध्वंस हो गया है और मायाशंकर उसके भग्नावेश पर बैठा रो रहा है। एक बार ऐसा जान पड़ा कि गायत्री मेरी ओर से कोप-दृष्टि से देख पड़ी है, तुम मक्कार हो, आँखों से दूर हो जाओ!
प्रातः काल ज्ञानशंकर उठे तो चित्त बहुत खिन्न था। ऐसे अलसाये हुए थे, मानो कई मंजिल तय करके आये हों। उन्होंने किसी से कुछ बातचीत न की। धोती उठायी और पैदल गोमती की ओर चले। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था, लेकिन तमाखू वालों की दूकानें खुल गयी थीं। ज्ञानशंकर ने सोचा, क्या तम्बाकू ही जीवन की मुख्य वस्तु है कि सबसे पहले इनकी दूकान खुलती है? जरा देर में ‘मलाई-मक्खन’ की ध्वनि कानों में आयी। दुष्ट कितना-जीभ ऐंठ कर बोलता है। समझता होगा कि यह कर्णकटु शब्द रुचिवर्द्धक होंगे। भला गाता हो एक बात भी थी। अच्छा। ‘चाय गरम’ भी आ पहुँची। गर्म तो अवश्य ही होगी, बिना फूँके पियो तो जीभ जल जाय, मगर स्वाद वही गर्म पानी का। यह कौन महाशय घोड़ा दौड़ाये चले जाते हैं। कोई फौजी अफसर हैं। घोड़ा जरा ठोकर ले तो साहब बहादुर का हड्डियाँ चूर हो जायँ।
वह गोमती के तट पर पहुँचे तो भक्त जनों की भीड़ देखी। श्यामल जल-धारा पर श्यामल कुहिर छटा छायी हुई थी। सूर्य की सुनहरी किरणें इस श्याम घटा में प्रविष्ट होने के लिए उत्सुक थीं। दो-चार नौकाएँ पानी में खड़ी काँप रही थीं।
ज्ञानशंकर ने धोती चौकी पर रख दी और पानी में घुसे तो सहसा उनकी आँखें सजल हो गयीं। कमर तक पानी में गये। आगे बढ़ने का साहस न हुआ। अपमान और नैराश्य के जिन भावों ने उनकी प्रेरणाओं को उत्तेजित कर रखा था वह अकस्मात् शिथिल पड़ गये। कितने रण-भेद के मतवाले रणक्षेत्र में आकर पीठ फेर लेते हैं। मृत्यु दूर से इतनी विकराल नहीं दीख पड़ती; जितनी सम्मुख आकर, सिंह कितना भयंकर जीव है, इसका अनुमान उसे सामने देख कर हो सकता है। पहाड़ों को दूर से देखो तो ऊँची मेड़ के सदृश दिखाई पड़ते हैं, उन पर चढ़ना आसान मालूम होता है, किन्तु समीप जाइए तो उनकी गगन-स्पर्शी चोटियों को देखकर चित्त कैसा भयभीत हो जाता है! ज्ञानशंकर ने मरने को जितना सहज समझा था उससे कहीं कठिन ज्ञात हुआ। उन्हें विचार हुआ, मैं कैसा मन्द बुद्धि हूँ कि एक जरा सी बात के लिए प्राण देने पर तत्पर हो रहा हूँ। माना, मैं राय साहब की नजरों में गिर गया, माना गायत्री भी मुझे मुँह न लगायेगी और विद्या भी मुझसे घृणा करने लगेगी। तब भी क्या में जीवनकाल में कुछ काम नहीं कर सकता? अपना जीवन सफल नहीं बना सकता? संसार का कर्म क्षेत्र इतना तंग नहीं है। मैं इस समय आज से छह-सात वर्ष पूर्व की अपेक्षा कहीं अच्छी दशा में हूँ। मेरे २० हजार रुपये बैंक में जमा हैं, २०० मासिक की आमदानी गाँव से है, बँगला है, मोटर है, मकान किराये पर बैठा दूँ तो ५०)-६०) माहवर और मिलने लगें। अगर किसी की चाकरी न करूँ तो भी एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। राय साहब यदि मेरी कलाई खोल दें तो क्या मैं उनकी खबर नहीं ले सकता? उन्हें अपने कलम के जोर से इतना बिगाड़ सकता हूँ कि वह किसी को मुँह दिखाने योग्य न रहेंगे। गायत्री भी मेरे पंजों में है, मेरी तरफ से जरा भी निगाह मोटी करे तो आन की आन में इस उच्चासन से गिरा सकता हूँ। उसे मैंने ही नेकनाम बनाया है और बदनाम भी कर सकता हूँ। मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चली गयी थी। कूटनीति की रंगभूमि क्या इतनी संकीर्ण है? अब तक मुझे जो कुछ सफलता हुई है, इसी की बदौलत हुई है तो अब मैं उसका दामन क्यों छोड़ूँ? उससे निराश क्यों हो जाऊँ? अगर इस टूटी हुई नौका पर बैठ कर मैंने आधी नदी पार कर ली है। तो अब उस पर से जल में क्यों कूद पडूँ?
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