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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


बिलासी– तुम तो कुशल से रहे?        

सुक्खू– जीता हूँ, बस यही कुशल है। जेल से छूटा तो बद्रीनाथ चला गया। वहाँ से जगन्नाथ होता हुआ चला आता हूँ। बद्रीनाथ में एक महात्मा के दर्शन हो गये, उसने गुरुमन्त्र भी ले लिया। अब माँगता-खाता फिरता हूँ। गृहस्थी के जंजाल से छूट गया।

बिलासी ने डरते-डरते पूछा, यहाँ का हाल तो तुमने सुना ही होगा?

सुक्खू– हाँ, जब से आया हूँ वही चर्चा हो रही है और उसे सुनकर मुझे तुम पर ऐसी श्रद्घा हो गयी है कि तुम्हारी पूजा करने को जी चाहता है। तुम क्षत्राणी हो, अहीर की कन्या हो कर भी क्षत्राणी हो। तुमने वही किया जो क्षत्राणियाँ किया करती हैं। मनोहर भी क्षत्री है, उसने वही किया जो क्षत्री करते हैं। वह वीर आत्मा था। इस मन्दिर में अब उसकी समाधि बनेगी और उसकी पूजा होगी। इसमें अभी किसी देवता की स्थापना नहीं हुई है, अब उसी वीर-मूर्ति की स्थापना होगी। उसने गाँव की लाज रख ली, स्त्री की मर्जाद रख ली। यह सब क्षुद्र आत्माएँ बैठी उसे बुरा-भला कह रही हैं। कहती हैं, उसने गाँव का सर्वनाश कर दिया। इनमें लज्जा नहीं है, अपनी मर्यादा का कुछ गौरव नहीं है। उसने गाँव का सर्वनाश नहीं किया, उसे वीरगति दे दी, उसका उद्धार कर दिया! नारियों की रक्षा करना पुरुषों का धर्म है। मनोहर ने अपने धर्म का पालन किया। उसको बुरा वही कह सकता है जिसकी आत्मा मर गयी है, जो बेहया हो गया है। गाँव के दस-पाँच पुरुष फाँसी चढ़ जायें तो कोई चिन्ता नहीं, यहाँ एक-एक स्त्री के पीछे लाखों सिर कट गये हैं। सीता के पीछे रावण का राज्य विध्वंस हो गया। द्रौपदी के पीछे १८ लाख योद्धा मर मिटे। इज्जत के लिए दस-पाँच जाने चली जायें तो क्या बड़ी बात है! धन्य है मनोहर तेरे साहस को, तेरे पराक्रम को, तेरे कलेजे को।

सुक्खू का एक-एक शब्द वीर रस में डूबा हुआ है। बिलासी के हृदय में वह गुद-गुदी हो रही थी, जो अपनी सराहना सुनकर हो सकती है। जी चाहता था, सुक्खू के चरणों पर सिर रख दूँ, किन्तु अन्य स्त्रियाँ सुक्खू की ओर कुतूहल से ताक रही थीं कि यह क्या बकता है।

एक क्षण के बाद सुक्खू ने बिलासी से पूछा, खेती-बारी का क्या हाल है।

बिलासी के खेत सूख रहे थे, पर अपनी विपत्ति-कथा सुनाकर वह सुक्खू को दुखी नहीं करना चाहती थी। बोली, दादा, तुम्हारी दया से खेती अच्छी हो गयी है, कोई चिन्ता नहीं है।

कई और साधु आ गये जो सुक्खू के साथी जान पड़ते थे। उन्होंने धूनी जलायी और चरस के दम लगाने शुरू किये। गाँव के लोग भी एक-एक करके वहाँ से चलने लगे। जब बिलासी जाने लगी तो सुक्खू ने कहा, बिलासी मैं पहर रात रहे यहाँ से चला जाऊँगा, घूमता-घामता कई महीनों में आऊँगा। तब यहाँ मूर्ति की स्थापना होगी। हम उस यज्ञ के लिए भीख माँग कर रुपये जमा करते हैं। तुम्हें किसी बात की तकलीफ हो तो कहो।

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