सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
मनोहर को स्वयं आठों पहर यह शोक सताया करता था। गौस खाँ का वध करते समय उसे यही चिन्ता थी। इसलिए उसने खुद थाने में जाकर अपना अपराध स्वीकार कर लिया था। गाँव को आफत से बचाने के लिए जो कुछ हो सकता था वह उसने किया उसे दृढ़ विश्वास था कि चाहे मुझे दुष्कृत्य पर कितना ही पश्चत्ताप हो रहा हो, अन्य लोग मुझे क्षम्य ही न समझते होंगे, मुझसे सहानुभूति भी रखते होंगे। मुझे जलाने के लिए अन्दर की आग क्या कम है कि ऊपर से भी तेल छिड़का जाय। वह दुखरन की ये कटु बातें सुनकर बिलबिला उठा, जैसे पके हुए फोड़े में ठेस लग जाय। कुछ जवाब न दे सका।
आज अभियुक्तों के लिए प्रेमशंकर ने जेल के दारोगा की अनुमति से कुछ स्वादिष्ट भोजन बनवाकर भेजे थे। अपने उच्च सिद्धान्तों के विरुद्ध वह जेलखाने के छोटे-छोटे कर्मचारियों की भी खातिर और खुशामद किया करते थे, जिसमें वे अभियुक्तों पर कृपादृष्टि रखें। जीवन के अनुभवों ने उन्हें बता दिया था कि सिद्धान्तों की अपेक्षा मनुष्य अधिक आदरणीय वस्तु है। औरों ने तो इच्छा पूर्ण भोजन किया, लेकिन मनोहर इस समय हृदय ताप से विकल था। उन पदार्थों की रुचिवर्द्धक सुगन्धि भी उसकी क्षुधा को जागृत न कर सकी। आज वह शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे। जो अब तक केवल हृदय में ही सुनायी देते थे– तुम्हारे कारण सारा गाँव मटियामेट हो गया, तुमने सारे गाँव को चौपट कर दिया। हाँ, यह कलंक मेरे माथे पर सदा के लिए लग गया, अब यह दाग कभी न छूटेगा। जो अभी बालक हैं वे मुझे गालियाँ दे रहे होंगे। उनके बच्चे मुझे गाँव का द्रोही समझेंगे। जब मरदों के यह विचार हैं, जो सब बातें जानते हैं, जिन्हें भली-भाँति मालूम है कि मैंने गाँव को बचाने के लिए अपनी ओर से कोई बात उठा नहीं रखी और जो अन्धेर हो रहा है वह समय का फेर है, तो भला स्त्रियाँ क्या कहती होंगी, जो बेसमझ होती हैं। बेचारी बिलासी गाँव में किसी को मुँह न दिखा सकती होगी। उसका घर से निकलना मुश्किल हो गया होगा और क्यों न कहें? उनके सिर बीत रही है तो कहेंगे क्यों न? अभी तो अगहनी घर में खाने को हो जायगी, लेकिन खेत तो बोये न गये होंगे। चैत में जब एक दाना भी न उपजेगा, बाल-बच्चे दाने को रोयेंगे तब उनकी क्या दशा होगी। मालूम होता है इस कम्बल में खटमल हो गये हैं, नोचे डालते हैं, और यह रोना साल-दो साल का नहीं है, कहीं सब काले पानी भेज दिये गये तो जन्म भर का रोना है। कादिर मियाँ का लड़का तो घर सँभाल लेगा, लेकिन और सब तो मिट्टी में मिल जायेंगे और यह सब मेरी करनी का फल है।
सोचते-सोचते मनोहर को झपकी आ गयी। उसने स्वप्न देखा कि एक चौड़े मैदान में हजारों आदमी जमा हैं। फाँसी खड़ी है और मुझे फाँसी पर चढ़ाया जा रहा है। हजारों आँखें मेरी ओर घृणा की दृष्टि से ताक रही हैं। चारों तरफ से यही ध्वनि आ रही है, इसी ने सारे गाँव को चौपट किया। फिर उसे ऐसी भावना हुई कि मर गया हूँ और कितने ही भूत-पिशाच मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं और कह रहे हैं कि इसी ने हमें दाने-दाने को तरसा कर मार डाला, यही पापी है, इसे पकड़ कर आग में झोंक दो। मनोहर के मुख से सहसा एक चीख निकल आयी। आँखें खुल गयीं। कमरा खूब अँधेरा था, लेकिन जागने पर भी वह पैशाचिक भयंकर मूर्तियाँ उसके चारों तरफ मँडराती हुई जान पड़ती थीं। मनोहर की छाती बड़े वेग से धड़क रही थी जी चाहता था, बाहर निकल भागूँ, किन्तु द्वार बन्द थे।
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