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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


सन्ध्या का समय था। ज्ञानशंकर मुन्नू को साथ लिये हवा खाने जा रहे थे कि डॉक्टर इर्फान ने यह समाचार कहा। ज्ञानशंकर के रोयें खड़े हो गये और आँखों में आँसू भर आये। एक क्षण के लिए बन्धु-प्रेम ने क्षुद्र भावों को दबा दिया लेकिन ज्यों ही जमानत का प्रश्न सामने आया, यह आवेग शान्त हो गया। घर में खबर हुई तो कुहराम मच गया। श्रद्धा मूर्छित हो गयी, बड़ी बहू तसल्ली देने आयीं। मुन्नू भी भीतर चला गया और माँ की गोद में सिर रखकर फूट-फूटकर रोने लगा।

प्रेमशंकर शहर से कुछ ऐसे अलग रहते थे कि उनका शहर के बड़े लोगों से बहुत कम परिचय था। वह रईसों से बहुत कम मिलते-जुलते थे। कुछ विद्वज्जनों ने पत्रों में कृषि सम्बन्धी लेख अवश्य देखे थे और उनकी योग्यता के कायल थे, किन्तु उन्हें झक्की समझते थे। उनके सच्चे शुभचिन्तकों में अधिकांश कालेज के नवयुवक, दफ्तरों के कर्मचारी या देहातों के लोग थे। उनके हिरासत में आने की खबर पाते ही हजारों आदमी एकत्र हो गये और प्रेमशंकर के पीछे-पीछे पुलिस स्टेशन तक गये; लेकिन उनमें कोई भी ऐसा न था, जो जमानत देने का प्रयत्न कर सकता।

लाला प्रभाशंकर ने सुना तो उन्मत्त की भाँति दौड़े हुए ज्ञानशंकर के पास जाकर बोले, बेटा, तुमने सुना ही होगा। कुल मर्यादा मिट्टी में मिल गयी। (रोकर) भैया की आत्मा को इस समय कितना दुःख हो रहा होगा। जिस मान-प्रतिष्ठा के लिए हमने जायदादें बर्बाद कर दी वह आज नष्ट हो गयी। हाय! भैया जीवन-पर्यन्त कभी अदालत के द्वार पर नहीं गये। घर में चोरियाँ हुईं, लेकिन कभी थानों में इत्तला तक न की कि तहकीकात होगी और पुलिस दरवाजे पर आयेगी। आज उन्हीं का प्रिय पुत्र...। क्यों बेटा, जमानत न होगी?

ज्ञानशंकर इस कातर अधीरता पर रुष्ट होकर बोले, मालूम नहीं हाकिमों की मर्जी पर है।

प्रभा– तो जाकर हाकिमों से मिलते क्यों नहीं? कुछ तुम्हें भी अपनी इज्जत की फिक्र है या नहीं?

ज्ञान– कहना बहुत आसान है, करना कठिन है।

प्रभा– भैया, कैसी बातें करते हो? यहाँ के हाकिमों में तुम्हारा कितना मान है? बड़े साहब तक तुम्हारी कितनी खातिर करते हैं यह लोग किस दिन काम आयेंगे? क्या इसके लिए कोई दूसरा अवसर आयेगा?

ज्ञान– अगर आपका यह आशय है कि मैं जाकर हाकिमों की खुशामत करूँ, उनसे रियायत की याचना करूँ तो यह मुझसे नहीं हो सकता। मैं उनके खोदे हुए गढ़े में नहीं गिरना चाहता। मैं किस दावे पर उनकी जमानत कर सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि वह अपनी टेक नहीं छोड़ेंगे और मुझे भी अपने साथ ले डूबेंगे।

प्रभाशंकर ने लम्बी साँस भरकर कहा, हा भगवान! यह भाई भाइयों का हाल है! मुझे मालूम न था कि तुम्हारा हृदय इतना कठोर है। तुम्हारा सगा भाई आफत में पड़ा है और तुम्हारा कलेजा जरा भी नहीं पसीजता। खैर, कोई चिन्ता नहीं अगर मेरी सामर्थ्य से बाहर नहीं है तो मेरे भाई के पुत्र मेरे सामने यों अपमानित न हो पायेगा।

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