लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


प्रेम– तो यह सब तुम्हारी मिथ्या कल्पना है?

ज्ञान– जी हाँ, आपके सामने लेकिन दूसरों के सामने...

प्रेम– (बात काटकर) वह मानहानि का दावा कर दें तो?

ज्ञान– इसके लिए बड़ी हिम्मत चाहिए और उनमें हिम्मत का नाम नहीं। यह सब रोब-दाब दिखाने के ही है। अपील का फैसला मेरे अनुकूल हुआ, तो अभी उनकी और खबर लूँगा। जाते कहाँ हैं? और कुछ न हुआ तो बदनामी के साथ तबदील तो हो ही जायेंगे। अबकी तो आपने लखनपुर की खूब सैर की, असामियों ने मेरी खूब शिकायत की होगी?

प्रेम– हाँ, शिकायत सभी कर रहे हैं।

ज्ञान– लड़ाई-दंगे का तो कोई भय नहीं है?

प्रेम– मेरे विचार में तो इसकी संभावना नहीं है।

ज्ञान– अगर उन्हें मालूम हो जाये कि इस विषय में हम लोगों के मतभेद हैं-और यह स्वाभाविक ही है; क्योंकि आप अपने मनोगत छिपा नहीं सकते– तो वह और भी शेर हो जायेंगे।

प्रेम–  (हँसकर) तो इससे हानि क्या होगी?

ज्ञान– आपके सिद्धान्त के अनुसार तो कोई हानि न होगी, पर मैं कहीं का नहीं रहूँगा। इस समय मेरे हित के लिए यह अत्यावश्यक है कि आप उधर आना-जाना कम कर दें।

प्रेम– क्या तुम्हें संदेह है कि मैं असामियों को उभाड़कर तुमसे लड़ाता हूँ? मुझे तुमसे कोई दुश्मनी नहीं है? मैं लखनपुर के ही नहीं, सारे देश के कृषकों से सहानुभूति है। लेकिन इसका यह आशय नहीं कि मुझे जमींदारों से कोई द्वेष है, हाँ अगर तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं उधर न जाऊं तो यही सही। अब में कभी न जाऊँगा।

ज्ञानशंकर को इत्मीनान तो हुआ, पर वह इसे प्रकट न कर सके मन में लज्जित थे। अपने भाई की रजोवृत्ति के सामने उन्हें अपनी तमोवृत्ति बहुत निष्कृष्ट प्रतीत होती थी। वह कुछ देर तक कपास और मक्का के खेतों को देखते रहे, जो यहाँ बहुत पहले ही बो दिये गये थे। फिर घर चले आये। श्रद्धा के बारे में न प्रेमशंकर ने कुछ पूछा और न उन्होंने कुछ कहा। श्रद्धा अब उनकी प्रेयसी नहीं, उपास्य देवी थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book