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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मानकी–अगर ऐसा है, तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते?

कृष्णचंद्र–बहुत कठिन है। दुनिया का जंजाल अपने सिर लीजिए, दूसरों के लिए रोइए, दीनों की रक्षा के लिए लट्ठ लिये फिरिए, अधिकारियों के मुँह आइए, उनका क्रोध और कोप सहिए और इस कष्ट, अपमान और यंत्रणा का पुरस्कार क्या है? अपनी नवीन अभिलाषाओं की हत्या!

मानकी–लेकिन यश तो होता है।

कृष्णचंद्र–हाँ, यश होता है। लोग आशीर्वाद देते हैं।

मानकी–जब इतना यश मिलता है, तो तुम भी वही काम करो। हम लोग उस पवित्र आत्मा की और कुछ सेवा नहीं कर सकते तो उसी वाटिका को सींचते जायँ, जो उन्होंने अपने जीवन में इतने उत्सर्ग और भक्ति से लगायी? इससे उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।

कृष्णचंद्र ने माता को श्रद्धामय नेत्रों से देखकर कहा–करूँ तो, मगर संभव है, तब यह टीम-टाम न निभ सके। शायद फिर वही पहले की-सी दशा हो जाय।

मानकी–कोई हरज नहीं। संसार में यश तो होगा। आज तो अगर धन की देवी भी मेरे सामने आवे, तो मैं आँखें न नीची करूँ।

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यही मेरी मातृभूमि है

आज पूरे आठ वर्ष के बाद मुझे मातृभूमि–प्यारी मातृभूमि के दर्शन प्राप्त हुए हैं। जिस समय मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ था, और भाग्य मुझे पश्चिम की ओर ले चला था, उस समय मैं पूर्ण युवा था। मेरी नसों में नवीन रक्त संचालित हो रहा था। हृदय उमंगों और बड़ी-बड़ी आशाओं से भरा हुआ था। मुझे अपने प्यारे भारतवर्ष से किसी अत्याचारी के अत्याचार या न्याय के बलवान हाथों ने नहीं जुदा किया था। अत्याचारी के अत्याचार और कानून की कठोरताएँ मुझसे जो चाहे करा सकती हैं, मगर मेरी प्यारी मातृभूमि मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं। वे मेरी उच्च अभिलाषाएँ और बड़े-बड़े ऊँचे विचार ही थे, जिन्होंने मुझे देश-निकाला दिया था।

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