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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


आनंदी–स्वामी, आपके मन में ऐसी बातों का आना मुझ पर घोर अन्याय है। मैं तो ऐसी बुद्धिहीन हूँ। कि केवल अपने स्वार्थ के लिए आपको कलंकित करूँ। मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ, और सदैव समझूँगी। मैं भी अब आपके वियोग-दुख को नहीं सह सकती। कभी-कभी आपके दर्शन पाती रहूँ, यही जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा है।

इस घटना को पन्द्रह वर्ष बीत गए हैं। लाला गोपीनाथ नित्य बारह बजे रात कोल आनंदी के साथ बैठे हुए नजर आते हैं। वह नाम पर मरते हैं, आनंदी प्रेम पर। बदनाम दोनों हैं, लेकिन आनंदी के साथ लोगों की सहानुभूति है, गोपीनाथ सबकी निगाह से गिर गए हैं। हाँ, उनके कुछ आत्मीयगण इस घटना को केवल मानुषीय समझकर अब भी उनका सम्मान करते हैं, किन्तु जनता इतनी सहिष्णु नहीं है।

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मृत्यु के पीछे

बाबू ईश्वरचंद्र को सामाचार पत्रों में लिखने की चाट उन्हीं दिनों पड़ी जब वह विद्याभ्यास कर रहे थे। नित्य नए विषयों की चिंता में लीन रहते। पत्रों में अपना नाम देखकर उन्हें उससे ज्यादा खुशी होती थी, जितनी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने या कक्षा में उच्च स्थान प्राप्त करने से। वह अपने कालेज के ‘गरम दल’ के नेता थे। समाचार-पत्रों में परीक्षा-पत्रों की जटिलता या अध्यापकों के अनुचित व्यवहार की शिकायत का भार उन्हीं के सिर था। इससे उन्हें कालेज में नेतृत्व का पद मिल गया था। प्रतिरोधी के प्रत्येक अवसर पर उन्हीं के नाम नेतृत्व की गोटी पड़ जाती थी। उन्हें विश्वास हो गया था। कि मैं संसार कि इस परिमित क्षेत्र से निकल कर संसार के विस्तृत क्षेत्र में अधिक सफल हो सकता हूँ। सार्वजनिक जीवन को वह अपना भाग्य समझ बैठे थे।

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