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कहानी संग्रह >> प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


मैं काश्मीर-देश की रहनेवाली राजकन्या हूँ। मेरा विवाह एक राजपूत योद्धा से हुआ था। उनका नाम नृसिंहदेव था। हम दोनों बड़े आनंद का जीवन व्यतीत करते थे। संसार का सर्वोत्तम पदार्थ रूप है, दूसरा स्वास्थ्य और तीसरा धन। परमात्मा ने हमको ये तीनों पदार्थ प्रचुर परिणाम में प्रदान किए थे। खेद है, मैं उनसे तेरी मुलाकात नहीं करा सकती। ऐसा साहसी, ऐसा सुन्दर, ऐसा विद्वान पुरुष सारे काश्मीर में न था। मैं उनकी आराधना करती थी। उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह था। कई वर्षों तक हमारा जीवन एक जल-स्रोत की भाँति वृक्ष-पुंजों और हरे-हरे मैदानों में प्रवाहित होता रहा।

मेरे पड़ोस में एक मंदिर था। उसके पुजारी एक पंडित श्रीधर थे। हम दोनों प्रातःकाल तथा संध्या समय उस मंदिर में उपासना के लिए जाते। मेरे स्वामी कृष्ण के भक्त थे। मंदिर एक सुरम्य सागर के तट पर बना हुआ था। वहाँ की शीतल-मंद समीर चित्त को पुलकित कर देती थी। इसीलिए हम उपासना के पश्चात् भी वहाँ घंटों वायु सेवन करते रहते थे। श्रीधर बड़े विद्वान, वेदो के ज्ञाता, शास्त्रों को जाननेवाले थे। कृष्ण पर उनकी भी अविरल भक्ति थी। समस्त काश्मीर में उनके पांडित्य की चर्चा थी। वह बड़े संयमी, संतोषी, आत्मज्ञानी पुरुष थे। उनके नेत्रों में शांति की ज्योति-रेखाएँ निकलती हुई मालूम होती थीं। सदैव परोपकार मेंल मग्न रहते। उनकी वाणी ने कभी किसी का हृदय नहीं दुखाया; उनका हृदय नित्य पर-वेदना से पीड़ित रहता था।

पंडित श्रीधर मेरे पतिदेव से लगभग दस वर्ष बड़े थे, पर उनकी धर्मपत्नी विद्याधरी मेरी उम्र की थी। हम दोनों सहेलियाँ थीं। विद्याधरी अत्यंत गम्भीर, शांत-प्रकृति स्त्री थी। अपने रंग-रूप का उसे जरा भी घमंड न था, अपने पति को वह देवतुल्य समझती थी।

श्रावण का महीना था। आकाश पर काले-काले बादल मँडरा रहे थे, मानो कागज के पर्वत उड़े जा रहे हों। झरनों से दूध की घारें निकल रही थीं, और चारों ओर हरियाली छायी हुई थी। नन्हीं-नन्हीं फुहारें पड़ रही थीं मानो स्वर्ग से अमृत की बूँदें टपक रही हों। जल की बूँदे फूलों और पत्तियों के गले में चमक रही थीं। चित्त की अभिलाषाओं को उभारनेवाला समा छाया हुआ था। यह वह समय है, जब रमणियों को विदेशगामी प्रियतम की याद रुलाने लगती है, जब विरह की पीड़ा असह्य हो जाती है। इसी ऋतु में माली की कन्या धानी साड़ी पहनकर, क्वारियों में इठलाती हुई, चम्पा और बेले के फूलों से आँचल भरती है, क्योंकि हार-गजरों की माँग बढ़ जाती है।

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