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प्रेम प्रसून ( कहानी-संग्रह )

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :286
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8588
आईएसबीएन :978-1-61301-115

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इन कहानियों में आदर्श को यथार्थ से मिलाने की चेष्टा की गई है


दशहरे के दिन थे। कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियाँ हो रही थीं। एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था। भवन खूब सजाया गया था। शहर के रईसों को निमंत्रण दिये गए थे। यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था, बाईजी का या लाला गोपीनाथ का। गोपीनाथ सामग्रियाँ एकत्र कर रहे थे, उन्हें अच्छे ढंग से सजाने का भार आनंदी ने लिया था। नाटक भी इन्हीं का रचा था। नित्यप्रति उसका अभ्यास कराती थीं, और स्वयं एक पार्ट ले रखा था।

विजया-दशमी आ गई। दोपहर तक गोपीनाथ फ़र्श और कुर्सियों का इंतजाम करते रहे। जब एक बज गया और अब भी वह वहाँ से न टले, तो आनंदी ने कहा–लालाजी, आपको भोजन करने को देर हो रही है। अब सब काम हो गया है। जो कुछ बच रहा है मुझपर छोड़ दीजिए।

गोपीनाथ ने कहा–खा लूँगा, मैं ठीक समय पर भोजन का पाबन्द नहीं हूँ। फिर घर तक कौन जाए? घंटों लग जाएँगे। भोजन के उपरान्त आराम करने को जी चाहेगा। शाम हो जाएगी।

आनंदी–भोजन तो मेरे यहाँ तैयार है; ब्राह्मणी ने बनाया है। चलकर खा लीजिए, और यहीं जरा देर आराम भी कर लीजिए।

गोपीनाथ–यहाँ क्या खा लूँ! एक वक्त ना खाऊँगा, तो ऐसी कौन-सी हानि हो जाएगी?

आनंदी–जब भोजन तैयार है, तो उपवास क्यों कीजिएगा?

गोपीनाथ–आप जायँ, आपको अवश्य देर हो रही है। मैं काम में ऐसा भूला कि आपकी सुधि ही न रही।

आनंदी–मैं भी एक जून उपवास कर लूँगी, तो क्या हानि होगी?

गोपीनाथ–नहीं-नहीं इसकी क्या जरूरत? मैं आपसे सच कहता हूँ, मैं बहुधा एक जून ही खाता हूँ।

आनंदी–अच्छा, मैं आपके इनकार का आशय समझ गई। इतनी मोटी बात अब तक मुझे न सूझी।

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